Thursday, December 15, 2011

पापा और मैं!

उनका वक़्त होता उनका मोहताज,
मैं, बस घडी के काटों में ही उलझ जाता।

उनका कद होता सबसे उंचा,
मैं छोटा सा बालक बन कर रह जाता ।

उनके कंधो पर न होता कभी मैं बोझ,
मैं अपने बसते का बोझ भी न उठा पाता।

उनकी फटफटी में होता, मैं सबसे तेज़,
मैं अपनी साइकिल बस धीरे धीरे ही चलाता।

उनके हाथों से करता, मैं खर्च बड़े नोट,
मैं चंद सिक्कों में बस सिमट कर रह जाता।

उनके हाथों में होता, हाथी सा दम,
मैं डर कर बस उनके ही पीछे छुप जाता ।

उनको बिना पढ़े, उनको सब कुछ आता,
मैं इतना पड़कर भी बस गंवार ही रह जाता।

उनकी ज़रूरतें हमेशा ज़रुरत रहती,
मैं अपनी हर ख्वाशिओं को पूरा पाता ।

उनका डर कुछ पल भी न टिकता,
मैं अपनी आँखों से डर के अक्ष बहाता।

उनकी बाँहों में सुकून की दुनिया होती,
मैं अपनी मायूसी को उनसे न छुपा पाता।

उनको कभी न छुट्टी मिल पाती,
मैं अपनी छुट्टी उनके साथ ही मनाता।

उनके लिए मैं होता सब कुछ,
मैं क्यों फिर अपनी दुनिया अलग बसाता ?

Saturday, November 19, 2011

सब कुछ है तुम्हारा!

जब लगे कुछ रहा नहीं तुम्हारा !

जो साथ था वो पीछे छूट गया है,
हातों से जैसे सब कुछ टूट गया है।
अब खाली हैं हाथ
और अकेली है ज़िन्दगी ।
कोई खम्बक्त ने चुरा लिया हो
ज़िन्दगी से तुम्हारी ज़िन्दगी ।

जब लगे विराना सा सारा जहाँ,
जी रहें हो अकेले और तनहा वहां।
जब लगे कि डूबे हैं
कोई गहेरे समंदर में।
खुद हि ढूँढ रहे हो
खुद हि को बवंडर में ।

जब लगे कि कोई आस न रही हो ।
मरने का डर भी कोसो दूर कहीं हो।
न कोई अपना हो,
न कोई हो पराया।
वक़्त करे बेवफाई,
छोड़े साथ भी साया।

तब एक बार खुले आसमान के नीचे,
दोनों बाहें फेलाए, अंखियों को मीचे,
एक बार उस खुदा को देखना।

तब लगेगा
ये दूर वादिओं से जो हवा चल रही है,
वो तुमसे गले लगने कि कोशिश कर रही है।
ये चिराग तुम्हें देखने के लिए जल रहा है।
ये बादल तुम में मिलने के लिए पिघल रहा है ।

ये शीतल चाँद भी है तुम्हारा ,
ये जलता सूरज भी है तुम्हारा,
ये तारों का झुण्ड भी है तुम्हारा ,
ये सबका खुदा भी है तुम्हारा,

तब लगेगा तुम्हें कि सब कुछ है तुम्हारा।

Saturday, November 12, 2011

Some Couplets!

मालूम है मुझे तेरे बिन जीना मुश्किल,ये खुदा
पर कुछ देर के लिए ही सही मुझे अकेला छोड़ दे।

जो मेरे आंसू में बारिश की बूंदे है मिली,
लगा खुदा भी नहीं देख सका मुझे रोते हुए।

कब से बन्द रखी है आँखें जो आंसू न बह जाये,
ये खुदा, कैसे जुदा करे उसे जो तुने मुझे दिया है।

देखा दुनिया को पर उस खुदा को नहीं देख पाया,
कुछ तो वजह होगी जो उसने बक्शा हमें साया।

क्यों चुभते हैं कांटे जो तेरे पास आना चाहता हूँ ?
या ज़ख्म है फूलों के जो मैं न समझ पाता हूँ ?

Thursday, November 3, 2011

चलते-चलते


सोचा था, चलते चलते इतनी दूर चले आयेंगे,
कि पेरों में पड़े छाले भी न छुपा पाएंगे 
माना खुदा की रज़ा कुछ और थी मेरी खातिर,
अब जिद्द है अपनी किस्मत खुद लिख कर जायेंगे।


ही है पकड़ी राह, जिसे मेरे दिल ने है चाह,
ठानी है जो धुन अब वही धुन रमाएंगे
चुभे चाहे कितने भी कांटे, अब पैर न सहलायेंगे,
अब कांटो से है मोहब्बत, फूलों को गले न लगायेंगे


पैरों में बेड़ियों की जो वकालत किया करते हैं, 
सुनकर हमारी दलीलें अब वो सहम जायेंगे
खुले आसमान में हम इस तरह पंख फेलायेंगे,
कि हमें देखते-देखते उनकी गर्दनें टूट जायेंगे 

वो देते हैं रीति-रिवाज, परम्पराओं का हवाला,
वो अपने ही जंजीरों में बंद कर रह जायेंगे ।
हमें न फ़िक्र उन पशेमान खुदापरस्त लोगों की,
हम तो अपना हितिहास,अपना खुदा खुद बनायेंगे 


Wednesday, November 2, 2011

क्या मिलेगा मेरे ज़ख्मों में तुम्हे!

क्यों कुरेदते हो नाखूनों से अपने,
क्या मिलेगा मेरे ज़ख्मों में तुम्हें!

यादों में तेरी जो में जल चूका हूँ,
क्या मिलेगा अब राखों में तुम्हे!

दिल का दर्द अब छिपता नहीं है,
क्या मिलेगा पर दिखाने में तुम्हें!

जो गुज़रे कई इम्तिहानों से हम,
क्या मिलेगा आज़माने में तुम्हें!

आए थे तेरे शहर में बसर करने,
दिखता खुदा न मेहमानों में तुम्हें!

रहगुज़र न सही बेघर ही सही,
जो ढूंढते हैं हम मेहखानों में तुम्हे!

Saturday, October 22, 2011

ग़ज़ल - 23/10/2011

जो दिल से मेरे निकले वो आवाज़ कहाँ से लाऊँ,
जो दिल तक तेरे पहुंचे वो जज़्बात कहाँ से लाऊँ।

न कुछ था मेरा तेरे पहले, न कुछ होगा मेरा तेरे बाद,
जो जी सकूं कुछ दम-भर वो एहसास कहाँ से लाऊँ।

ये गमशुदा दुनिया में जो मिल सके वो नसीब मेरा,
जो मांग सकूं तेरी खातिर, वो फ़रियाद कहाँ से लाऊँ।

बे-सबब मिली रुसवाई भी लगती कुछ कम मुझे,
जो जला सके मेरे अक्स को, वो आग कहाँ से लाऊं।

खुदा भी जानता है कि नहीं उसके पास मेरी ज़िन्दगी,
जो देदूं उसे ये जिंदगानी, वो इशफाक कहाँ से लाऊं।

ये काफिरों की बस्ती में क्यों घुट-घुट जी रहा मैं,
जो उड़ सके आसमां में, वो परवाज़ कहाँ से लाऊं।

Tuesday, October 18, 2011

भिखरे हुए तर्ज़

चलते-चलते जो दूर निकल आए, अब रुकने का मन करता है।
वो पीछे छूटी हुई गलियों से, फिर गुजरने का मन करता है।
हर बार जो मुड़कर देखा तो, यादों के गुछे लटके दिखते हैं।
हर बार की तरह इस बार भी, वो गुछे चखने का मन करता है।

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आँखों से आंसू जो निकले तो इस बार रुक पाएंगे,
पर है यकीन ये भी कि, दिल से मेरे होठ मुस्करायेंगे।
यादों की महफ़िल में आज फिर यारों का साथ होगा,
और मनेगा जश्न जब दिलों के जाम आपस में टकरायेंगे।

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मत भूलो खुदगर्ज़ी के आलम में जीने वालों,
जनाज़े के लिए चार कंधे कहाँ से जुटाओगे?

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हर सजदे में कांटे चुबे, असर हो कोई दुआ,
चलो अब मान लेते हैं, खुद को हम अपना खुदा।

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Monday, October 10, 2011

आइना

जब भी मेरा दिल तेरी बेवफाई का राज़ खोलता है,
मेरा आइना भी मुझसे कुछ तो झूठ बोलता है।

जो चेहरे को मेरे खोखली हंसी के मौखोटे चढ़ जाते हैं,
दिल की खलिश को वो आँखों के दरारों से तोलता है।

कब तक मेरा अक्स भी मेरे अश्क में धुल जाएगा,
देखे मेरे आंसू भी मेरे गम को कब तक घोलता है।

दो मुसाफिरों की तरह तो हम न मिले थे कभी,
फिर क्यों मेरा साथ, बस तेरे हाथ को टटोलता है।

Tribute to Jagjit Singh

हर पहली मोहब्बत की आवाज़ है तू,
हर दर्द भरे दिल का एहसास है तू ,
जो कह नहीं सके लब्ज़ वो फ़रियाद है तू ,
दूर जाकर भी, हमारे दिल के पास है तू

Friday, September 23, 2011

लहरें

ये सागर की लहरें भी कितनी अजीब हैं।

झूम-झूमकर ये किनारों पर आती हैं,
और फिर किनारों से टकराती हैं,
तो कभी पत्थरों पर
अपना सिर दे मारती हैं।
थक हारकर वापिस लौट जाती हैं।

फिर कुछ समय बाद,
नयी आशा और सपनो के साथ,
वो लहरें फिर किनारे आती है।
और फिर वही कहानी दोहराती है।
चलता रहता है ये सिलसला बार बार,
बिना रुके, बिना थमे, बिना माने हार।

जब ये लहरें किनारे से टकराकर,
कुछ टूटकर, कुछ भिखरकर,
मेरे पैरों को छूती है।
तब मानो लगता है ऐसे,
जैसे वो कुछ कह रही हो।
अपनी हर कोशिश के वजूद को
रेतों पर कायम कर रही हो।

और मानो चिढ़ा रही हो, उन लोगों को,
जिन्हें अपनी कोशिश में हार नहीं मंज़ूर होती।
जो ज़िन्दगी को हार और जीत के तराजू से तौलते हैं
और मंजिल कि चाह में रास्ते का लुफ्त भूल जाते हैं।
आज ये लहरों ने मुझे तो छू लिया है,
अपनी ही आदतों में गिरफ्त करने।

मैं खुश हूँ मगर,
ये सागर के लहरें भी कितनी अजीब हैं।

Tuesday, September 20, 2011

ठहराव

अब ज़िन्दगी की गति में थोड़ा-सा ठहराव चाहिये,
जो भर गये हैं ज़ख्म उनमें न और घाव चाहिये।
चल चुके है बहुत दूर नंगे पैर, तपती सड़को पर,
दो पल के लिए ही सही कहीं तो ठंडी छाव चाहिये।

जागे हैं बहुत देर से हम, ये आँखें भी थक चुकी हैं,
कुछ देर तो अब सोने दो, इनमें न और ख्वाब चाहिये।

माना ये वक़्त के कांटे हैं, न सोते हैं, न सोने देते हैं।
अब वक़्त की जंजीरों से ज़िन्दगी मेरी आज़ाद चाहिये।

अब गम से भरी कविताओं को, कर दो थोड़ी देर किनारे,
बहुत देर से दिल में बसा है प्यार, अब उसे भाव चाहिये।

जो तौलते थे ज़िन्दगी को, हर वक़्त, अपने तेय पैमानों से,
बहुत बाकी है प्यास, अब जो छलक जाये वो जाम चाहिये।

देखा ज़िन्दगी को बदलते हुए, ज़माने से आगे चलते हुए,
अब तो मुझे थमना होगा, अब न मुझे कोई बदलाव चाहिये।

अब ज़िन्दगी की गति में थोड़ा-सा ठहराव चाहिये।

Thursday, September 15, 2011

Some Couplets

(1)
जो पल भर न थमे वक़्त तो यकीन होता है,
कुछ तो है, जो खुदा के हाथ में भी नहीं है।

(2)
जो पल भर थम जाता वक़्त तो यकीन होता,
कुछ तो है जो खुदा के हाथ में भी है।

(3)
जो माना तुझे खुदा तो, खुश खुदा हो गया,
पर तोहीन न हो जाये तेरी, ये मुझे गुमां हो गया।

(4)
वो कहते हैं कि खुदा है तो खुदा क्यों दिखता नहीं?
हम येही कहते हैं जो दिखता है वो खुदा होता नहीं।

(5)
अगर खुदा तुझे नाज़ है इस खुदाई पर तो,
में कौन हूँ जो इस खुदाई पर ऐतराज़ करे।

(6)
जो करने आए मोहब्बत तो नफ़रत क्यों मिली?
ये खुदा तू ही बता दे, हमसे गिला अब क्या हुई?

(7)
वो आइना भी था तेरा, वो शक्ल भी थी तेरी,
फिर भी न जाने हमें क्यों गुमान हो गया।

Sunday, September 4, 2011

सलीका

कोई इस बात पर गौर करता है कि ज़िन्दगी जीना का क्या सलीका है।
कोई इस बात पर गौर करता है कि ज़िन्दगी को क्यों सलीकों से जिया जाता है।

मैं जब ट्रेन से यात्रा करता हूँ तो अक्सर दरवाज़े पर खड़ा हो जाता,
और घंटे निहारता हूँ वादिओं को, पेड़ो को, पक्षियों को,
वो ऊपर निचे डोलते पहाड़ो को, दूर कहीं जाती गाड़ियों को.
वो खेतों को, खलियानों को,
वो नदियों को,
वो झरने से घिरे पहाड़ो को,
वो घने जंगलों में एक मंदिर को,
वो ढ़ोरों को चराता हुआ एक चरवाह को।

और उसी समय जब तेज़ हवा गुज़रते हुआ,
मेरे चहरे से टकराकर बालों को उड़ाती है,
मुझे कुछ कहती मुझे कुछ सुनाती है,
मैं हँसता और ख़ुशी दिल में दौड़ जाती है।

जानता नहीं क्यों है ये ख़ुशी,
और जानने कि कोशिश भी नहीं करता हूँ।
बस लगता है कि जैसे ये तेज़ हवा के संग मेरे गम भी गुज़र जाते हैं।
बस ख़ुशी ठहर जाती है, कहीं जाने की, किसी से मिलने की।

कुछ लोग कहते हैं कि दरवाज़े से दूर खड़े हो जाओ,
पर उनको क्या पता कि ज़िन्दगी जीने का सलीका नहीं होता।

(There are no rules of life and therefore life does not rules, its you who rules!)

Thursday, September 1, 2011

कुछ रुबाइयाँ

जब से वो करने लगे हैं मोहब्बत बेगानों की तरह,
गुज़रने लगे हैं ये रात और दिन अंजानो की तरह।
वो थे तो, ये जहाँ भी अपना ये आस्मां भी अपना।
वो नहीं तो, रूह भी बसर करती है मेहमानों कि तरह।

लगा क्यों आज मेरा आशियाना टूट गया,
संभाले थे जिसे हम वो फ़साना छूट गया।
कहते थे जिसे दोस्त ज़िन्दगी भर हम वो,
रकीब बनकर दिल का खजाना लूट गया।

सितारों से आगे जहाँ और भी है,
अभी ज़िन्दगी में मुकां और भी है।
और क्यों रुकू मैं, क्यों थमू मैं,
अभी दिल में बसे अरमां और भी है।
(Inspired from Allama Iqbal - poetry)






Thursday, August 25, 2011

मन का चोर

एक चोर था मेरे मन में,
एक चोर था तेरे मन में ।

कुछ थी न तुझको खबर,
कुछ मैं भी था बेखबर ।

पर एहसास था कहीं छुपा हुआ है ।
और दिखावों के बोझों में दबा हुआ है ।

वो आदत के जालों में घिरा हुआ है ।
वो मजबूरी के धागों में फिर हुआ है ।

कोई देता था दस्तक तो कई बार ,
पर सुनकर अनसुना करा हर बार ।

पर बहुत देर से एक आंधी आई है
जो खटखटा रही है दरवाज़ा कई बार।

लगता है अब न रुक पायेगा ये दरवाज़ा।
लगता है जल्द टूट जायेगा ये दरवाज़ा ।

कुछ तो होगा जो झिंझोड़ेगा मुझे,
कुछ तो होगी हलचल भी तुझे ।

फिर लगेगी सीने में जो आग ,
फिर जा निकालेंगे वो चोर भाग ।

फिर तू भी चैन से सो सकता है ।
फिर में भी चैन से सो सकता हूँ ।

Thursday, August 11, 2011

वो आदत थी तुम्हारी ..

वो आदत थी तुम्हारी सनम जो तुम हमें रुसवा किया करे,
ये आदत है हमारी सनम जो हम तुमसे रुसवा हुआ करे।

वो नूर था तुम्हारा जिसे देख हम सदा जिया करे,
ये अश्क है हमारे जिनको तुमने सदा अनदेखा करे।

वो ग़ज़ल थी लब्ज़ो में तुम्हारी जो हम सदा सुना करे,
ये गम हैं हमारे जो तुम्हारे कानों तक न पहुंचा करे ।

वो लहरें थी तुम्हारे केशों की लटे जिसमें हम डूबा करे,
ये सेलाब है हमारे प्यार का जो छुहे बिना तुमसे गुजरा करे।

वो गुज़रे पल थे तुम्हारे जिनकी यादें हमारी दुनिया बना करे,
ये ज़िन्दगी है हमारी जो तेरे सागर में बस बुलबुले बना करे।

वो शिकवे थे तुम्हारे जो हमारी ज़िन्दगी के दस्तूर हुआ करे,
ये दर्द है हमारे जो तुम्हारी ज़िन्दगी से बहुत दूर हुआ करे।

वो रूह थी तुम्हारी जिसे छुने की आस में हम दर-बदर भटका करे,
ये दिल्लगी है हमारी जिस से बचकर तुम मुस्कराएं चला करे।

वो वादे थे तुम्हारे जिसे हमने खुदा का हुकुम समझा किया करे,
ये खुदा है हमारा जिसे तुमने बुद समझ कर ठुकरा दिया करे।

वो टूटी पायल थी तुम्हारी जिसे हमने हमेशा महफूज़ रखा करे,
ये दौलत है हमारी जिसको लुटते हमने सरे-आम देखा करे।

वो लबों की हंसी तुम्हारी जो साया बन संग मेरे घुमा करे,
ये ख़ुशी है हमारी जो तेरे साये में अपना साया ढूँढा करे।

वो मर्ज़ी थी तुम्हारी जो तुमने हमसे दूर जाना तय किया करे,
ये मर्ज़ी है हमारी की हमने तुम्हारा इंतज़ार करना तय किया करे।

Wednesday, August 3, 2011

मेरा घर मुझे बेगाना सा लगता है

आज कल मेरा घर मुझे बेगाना सा लगता है ,
किसे कहें हम अपना हर एक अंजाना सा लगता है।

सुकड़न पड़ी दीवारें अब बस कड़ाड़ती ही हैं,
ज़मीन पर पड़ी सलवटें अब सुलझती नहीं ।
दरख्तों के दरवाजों पर जंग जो लगी है,
खिड़किओं से वो सुबह की रौशनी गुज़रती नहीं।

अब घर जाने का जो वक़्त बहाना सा लगता है
आज कल मेरा घर मुझे बेगाना सा लगता है

अब कोई आइना भी नहीं जिसे हम दोस्त कह सकते,
चुभते टूटे कांच के टुकड़े का एहसास अभी भी है ।
अब तो लहू भी नहीं छोड़ता निशाँ अपने ज़मीन पर,
जो बन चूका ज़मीन आदम तो इसकी प्यास अभी भी है।

दूर जाना भी अब इससे गुस्ताक-नामा सा लगता है,
आज कल मेरा घर मुझे बेगाना सा लगता है।

मेरा घर मुझसे कहता की में काफिर हूँ उसका
जो रखता नहीं ख्याल उसका मैं पल भर भी।
वो आए तो थे सौदा करने मेरा मकान का,
मेरी इनकार के साथ चल दिया मेरा घर भी।

बचा हुआ मेरा मकान अब विराना सा लगता है,
आज कल मेरा घर मुझे बेगाना सा लगता है।

Thursday, July 21, 2011

शायरी - 2107

सोचा इश्क के बाज़ार में दिल का सौदा करने जाए,
पर कम्भक्त दिल के बदले हम गम खरीद लाए
और ये गम की तासीर की हिमाक़त थी जो
फिर गए थे गम बेचने तो हम खुद को ही बेच आए

अब क्या खरीदें, अब क्या बेचें, अब तो न कुछ भाए।

मेरे कमरे की तस्वीर

कई बरस पहले मेरे कमरे में एक तस्वीर टंगा करती थी।
दुनिया के दस्तूरों से बचकर अक्सर मुझसे बातें किया करती थी।

कहानी, किस्से, सवालों की सौगातें लाती थी,
मुझे मेरी तनहाइयों से आज़ाद करवाती थी।

कभी मुझे मनाती, तो कभी मुझे सताती थी,
मेरे संग झूमती, मेरे संग खुशियाँ मनाती थी।

जाने क्यों मैं एक दिन वो कमरा छोड़कर चला गया,
अपनी वो तस्वीर को अकेला छोड़कर चला गया।

अब आया हूँ वापस तो मेरे कमरे में वो तस्वीर नहीं है,
भिकरी हुई ज़िन्दगी में मानो मेरी कोई तकदीर नहीं है।

वो कौन-सी हवा का झोंका था जिसने वो तस्वीर गिरा दिया,
या बाबू जी ने चंद पैसों के खातिर रद्दी में फिकवा दिया।

अभी भी दिवार पर हलके-हलके कुछ उसके निशाँ बाकी है,
छूता हूँ ज़मीन को तो कुछ चुभते कांच के टुकड़े बाकी है।

कई बरस बाद भी तकती है निगाह मेरी उस दिवार पर,
बस! लौटा दो मुझे वो तस्वीर, अबके बरस की पोहार पर।

ग़ज़ल - 2107

पीते हैं हम तो पीने का गम नहीं है,
जिसका है गम वो मेरे संग नहीं है।
गुज़रे जो शाम मयकदे में हमेशा,
रात का जगना तो मरने से कम नहीं है।

पीते हैं रोज़ ज़हर सोचकर कि उठ न पाए कभी,
पर लगता है अब शराब में भी वो दम नहीं है।

अब दरकिनार कर चुके हैं दुनियावालों ने हमें,
इस बुद्परस्त दुनिया में संगदिल कम नहीं है।

इस आफताब की गहराही में, चाँद की परछाई में,
बहुत ढूँढा हमने मगर कहीं मेरा सनम नहीं है।

उठती थी कभी नज़रें देखने तेरे ही शादाब को,
अब धुंधली हैं नज़र, अश्को से आँखे नम नहीं है।

खुद रुसवा हुए पर तेरी बेवफाई को मुश्तहिर न किया,
पर अब तेरी बेवफाई में, तेरे संग हम नहीं है।

पीते हैं हम तो पीने का गम नहीं है।

Sunday, June 26, 2011

खुद को भूले

गम के अंधेरों में कभी हम खुद से भी बातें कर लिया करते थे,
जब से चांदनी ने घेरा है हमें, मानो खुद को ही भूल गये हैं।

अब बातों का वो जलसा नहीं सजता है
और मदिरा का पैमाना नहीं छलकता है,
वो तेरे नैनों की ग़ज़ल में ऐसे डूबे हैं
मानो खुद शायरी ही भूल गये हैं।

ये गुजरने वाली हवा का वो झोका है,
जो गुजरने के बाद भी अपनी महक छोड़ जाएगी।
और ये महक ही है जो डराती हमें,
मानो खुद सांस लेना ही भूल गये हैं।

अब धुप से ढकी दीवारों पर सीलन नहीं पड़ा करती है,
और छत पर कबूतरों का जमावड़ा भी चला आता है,
और जताते हैं की दाना डाला करते थे हम कभी,
पर अब मानो खुद खाना ही भूल गये हैं।

एक दिन ये उड़ जायेंगे अपने पंख पखारे,
और हम देखते रह जायेंगे टूटे सपने सारे।
घनघोर बादलों के बीच छिप जाएगी धुप सारी,
फिर होगा अंधेरों का दामन और होगी ग़मों की चादर,
फिर से चलेगा दौर बातों का और तब आयेंगे याद खुद को हम।

Friday, June 3, 2011

शायरी - 1204

तेरी जुस्तुजू तो नहीं, तेरा न कोई ख्वाब है,
बस गम की दुआओं का मेरे सर पर हाथ है।
जो अश्क नहीं बहे, उम्र भर मेरे मालिक,
अब गिरे जो दम-ब-दम तो तेरी सौगात है।

Thursday, June 2, 2011

मेरी आज़ादी

वो गुज़रा हुआ वक्त को देखा तो लगा कुछ बदल गया है,
जैसे यादों के पानी में बिखरे बर्फ की तरह पिघल गया है।
अब जब बुलबुले उठाते हैं, तो आँखों से दो आंसू छलक जाते हैं,
संभाले न संभालते हैं, जैसे पैमाने के मायेने बदल जाते हैं।

गम तो मुझे अभी भी नहीं है, पर वो क्या खुशियाँ का दौर था,
जब हंसी के फुहार से मिलते थे यार दोस्त वो ज़माना कुछ और था।
अब मगर लगता है जैसे सांसो ने जीना छोड़ दिया है,
अब खिलखलाते रास्तों ने इधर से गुज़रना छोड़ दिया है।

कभी खुली वादियों में पंख पखारे उड़ा करते थे,
कभी धरा को बिस्तर बनायें आसमान को ओड़ा करते थे।
अब वो चेतना खो गयी है, अब वो वादियाँ सो गयी है,
अब पक्की दीवारों का झुण्ड बचा है, और काले बादलों का घेरा है।

कभी डर की सीमाएं छोट्टी हुआ करती थी, कुछ ऊट-पटांग करने को दिल चाहता था,
कभी बाबूजी के कंधो पर बेठे हुए, सबसे ऊँचे होने का गुमान उमड़ आता था
अब सटीकता से दिल घबराता है, अपनी ही गलतियों के आईने में घिर जाता है,
अब खुद के भी कंधे मानो टूट गये हैं, जाने क्यों अब बाबूजी भी मुझसे रूठ गये हैं।

कभी अरमानों की अटकलों से निकलता था मेरा उज्जवल सवेरा,
कभी शाम को माँ के आँचल में गुजरता था मेरा सपनो का अँधेरा।
अब सपने भी देते नहीं दस्तक और सवेरा भी आने को नाराजी है,
अब जो आंचल उड़ा ले गयी है हवा कहता इसे मैं मेरी आजादी है।

Tuesday, May 3, 2011

One of my favourite lines with explaination

देखता हूँ की मैं क्या सोचूँ, सोचता हूँ की मैं क्या देखूं,
देखने से पहले ही जाने क्यों सोच बदल जाती है।
सोच की गहराई में खोज की गुंजाईश हो क्योंकि,
देखते ही देखते जाने क्यों खोज बदल जाती है।

Explaination:
This verse depicts the conflict between expectation (soch) and deserve (dekh).
We always have expectations and think that our expectation is what we deserve (First line)
but when we get something, we automatically raises our expectation, as in we are never dissatisfied with what we get.(second line)
We should not be disappointed with what we have or what we deserve and there has to be option of acceptance (third line)
because you never know when fate changes (fourth line)


Randoms..

इश्क की भरी महफ़िल में हम भी रुसवा हुए हैं,
जिसे चाहते थे बे-इन्तहा वो भी देखो बेवफा हुए हैं।
किस्से और कहानियों जो सुना-पढ़ा करते थे हम,
आज देखो उन्ही पन्नो के हज़ार टुकड़े हवा हुए हैं।

सोचकर जो चले थे रस्ते पर वो फ़साना बदल गया है,
कई सदियों के बदलने में ये ज़माना बदल गया है।
तन्हाई में जो छोड़कर चले गये हैं जाने क्या बात है,
बदलते ज़माने में ये न सोचना की ये दीवाना बदल गया है।

वो गुज़रे तो थे उस रास्ते पर जिस रास्ते पर मैं खड़ा था,
न देखा एक बार मुड़कर उसने, सनम संगदिल बड़ा था।
उनके एक दीदार के खातिर मैंने बार बार खुद को मारा,
मगर वो आये नहीं ज़ालिम, कबसे मेरा जनाजः वहीँ पड़ा था।

तेरे कसबे बना सकूं, वो दरख़्त ढूंढता हूँ मैं,
जो गुज़रे तेरे संग, वो वक़्त ढूँढता हूँ मैं।

काश कोई पैमाना होता, जिस में होती इतनी शराब,
न रहते होश में हम, न लगती ये दुनिया खराब ।

क्या मिला क्या न मिला

कुछ होते हैं बदनसीब जिनेह क़िनारा न मिला,
मुझे साहिल तो मिला पर कोई सहारा न मिला।
वो सजी तो थी महफ़िल कई चाँद से मगर,
ढूँढा किये जिसे हम रात भर वो हमारा न मिला।

तख़्त पर बेठे हुए देखा किया सारा जहाँ,
ग़मों की रौशनी में खुशिओं का नज़ारा न मिला।

याद है वो ठिकाना जहाँ मिले थे हम पहली बार,
अभी भी राह तख्ते हैं मगर वो मौका दुबारा न मिला।

क्या बिसात मेरी जो उठाऊँ सर तेरे आगे,
वो कयामत का दिन था पर शरारह न मिला।

वो कहते हैं की हम काफ़िर है तो पूछते है,
मेरे जनाजः पर क्यों दीदार तुम्हारा न मिला।

बड़ा तड़पे हैं तुझे अपना बनाने की चाहत में,
यादों की तनाहिओं में अब गुज़ारा न मिला।