Thursday, September 1, 2011

कुछ रुबाइयाँ

जब से वो करने लगे हैं मोहब्बत बेगानों की तरह,
गुज़रने लगे हैं ये रात और दिन अंजानो की तरह।
वो थे तो, ये जहाँ भी अपना ये आस्मां भी अपना।
वो नहीं तो, रूह भी बसर करती है मेहमानों कि तरह।

लगा क्यों आज मेरा आशियाना टूट गया,
संभाले थे जिसे हम वो फ़साना छूट गया।
कहते थे जिसे दोस्त ज़िन्दगी भर हम वो,
रकीब बनकर दिल का खजाना लूट गया।

सितारों से आगे जहाँ और भी है,
अभी ज़िन्दगी में मुकां और भी है।
और क्यों रुकू मैं, क्यों थमू मैं,
अभी दिल में बसे अरमां और भी है।
(Inspired from Allama Iqbal - poetry)






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