Thursday, December 15, 2011

पापा और मैं!

उनका वक़्त होता उनका मोहताज,
मैं, बस घडी के काटों में ही उलझ जाता।

उनका कद होता सबसे उंचा,
मैं छोटा सा बालक बन कर रह जाता ।

उनके कंधो पर न होता कभी मैं बोझ,
मैं अपने बसते का बोझ भी न उठा पाता।

उनकी फटफटी में होता, मैं सबसे तेज़,
मैं अपनी साइकिल बस धीरे धीरे ही चलाता।

उनके हाथों से करता, मैं खर्च बड़े नोट,
मैं चंद सिक्कों में बस सिमट कर रह जाता।

उनके हाथों में होता, हाथी सा दम,
मैं डर कर बस उनके ही पीछे छुप जाता ।

उनको बिना पढ़े, उनको सब कुछ आता,
मैं इतना पड़कर भी बस गंवार ही रह जाता।

उनकी ज़रूरतें हमेशा ज़रुरत रहती,
मैं अपनी हर ख्वाशिओं को पूरा पाता ।

उनका डर कुछ पल भी न टिकता,
मैं अपनी आँखों से डर के अक्ष बहाता।

उनकी बाँहों में सुकून की दुनिया होती,
मैं अपनी मायूसी को उनसे न छुपा पाता।

उनको कभी न छुट्टी मिल पाती,
मैं अपनी छुट्टी उनके साथ ही मनाता।

उनके लिए मैं होता सब कुछ,
मैं क्यों फिर अपनी दुनिया अलग बसाता ?