सोचा इश्क के बाज़ार में दिल का सौदा करने जाए,
पर कम्भक्त दिल के बदले हम गम खरीद लाए
और ये गम की तासीर की हिमाक़त थी जो
फिर गए थे गम बेचने तो हम खुद को ही बेच आए
अब क्या खरीदें, अब क्या बेचें, अब तो न कुछ भाए।
Thursday, July 21, 2011
मेरे कमरे की तस्वीर
कई बरस पहले मेरे कमरे में एक तस्वीर टंगा करती थी।
दुनिया के दस्तूरों से बचकर अक्सर मुझसे बातें किया करती थी।
कहानी, किस्से, सवालों की सौगातें लाती थी,
मुझे मेरी तनहाइयों से आज़ाद करवाती थी।
कभी मुझे मनाती, तो कभी मुझे सताती थी,
मेरे संग झूमती, मेरे संग खुशियाँ मनाती थी।
जाने क्यों मैं एक दिन वो कमरा छोड़कर चला गया,
अपनी वो तस्वीर को अकेला छोड़कर चला गया।
अब आया हूँ वापस तो मेरे कमरे में वो तस्वीर नहीं है,
भिकरी हुई ज़िन्दगी में मानो मेरी कोई तकदीर नहीं है।
वो कौन-सी हवा का झोंका था जिसने वो तस्वीर गिरा दिया,
या बाबू जी ने चंद पैसों के खातिर रद्दी में फिकवा दिया।
अभी भी दिवार पर हलके-हलके कुछ उसके निशाँ बाकी है,
छूता हूँ ज़मीन को तो कुछ चुभते कांच के टुकड़े बाकी है।
कई बरस बाद भी तकती है निगाह मेरी उस दिवार पर,
बस! लौटा दो मुझे वो तस्वीर, अबके बरस की पोहार पर।
दुनिया के दस्तूरों से बचकर अक्सर मुझसे बातें किया करती थी।
कहानी, किस्से, सवालों की सौगातें लाती थी,
मुझे मेरी तनहाइयों से आज़ाद करवाती थी।
कभी मुझे मनाती, तो कभी मुझे सताती थी,
मेरे संग झूमती, मेरे संग खुशियाँ मनाती थी।
जाने क्यों मैं एक दिन वो कमरा छोड़कर चला गया,
अपनी वो तस्वीर को अकेला छोड़कर चला गया।
अब आया हूँ वापस तो मेरे कमरे में वो तस्वीर नहीं है,
भिकरी हुई ज़िन्दगी में मानो मेरी कोई तकदीर नहीं है।
वो कौन-सी हवा का झोंका था जिसने वो तस्वीर गिरा दिया,
या बाबू जी ने चंद पैसों के खातिर रद्दी में फिकवा दिया।
अभी भी दिवार पर हलके-हलके कुछ उसके निशाँ बाकी है,
छूता हूँ ज़मीन को तो कुछ चुभते कांच के टुकड़े बाकी है।
कई बरस बाद भी तकती है निगाह मेरी उस दिवार पर,
बस! लौटा दो मुझे वो तस्वीर, अबके बरस की पोहार पर।
ग़ज़ल - 2107
पीते हैं हम तो पीने का गम नहीं है,
जिसका है गम वो मेरे संग नहीं है।
गुज़रे जो शाम मयकदे में हमेशा,
रात का जगना तो मरने से कम नहीं है।
पीते हैं रोज़ ज़हर सोचकर कि उठ न पाए कभी,
पर लगता है अब शराब में भी वो दम नहीं है।
अब दरकिनार कर चुके हैं दुनियावालों ने हमें,
इस बुद्परस्त दुनिया में संगदिल कम नहीं है।
इस आफताब की गहराही में, चाँद की परछाई में,
बहुत ढूँढा हमने मगर कहीं मेरा सनम नहीं है।
उठती थी कभी नज़रें देखने तेरे ही शादाब को,
अब धुंधली हैं नज़र, अश्को से आँखे नम नहीं है।
खुद रुसवा हुए पर तेरी बेवफाई को मुश्तहिर न किया,
पर अब तेरी बेवफाई में, तेरे संग हम नहीं है।
पीते हैं हम तो पीने का गम नहीं है।
जिसका है गम वो मेरे संग नहीं है।
गुज़रे जो शाम मयकदे में हमेशा,
रात का जगना तो मरने से कम नहीं है।
पीते हैं रोज़ ज़हर सोचकर कि उठ न पाए कभी,
पर लगता है अब शराब में भी वो दम नहीं है।
अब दरकिनार कर चुके हैं दुनियावालों ने हमें,
इस बुद्परस्त दुनिया में संगदिल कम नहीं है।
इस आफताब की गहराही में, चाँद की परछाई में,
बहुत ढूँढा हमने मगर कहीं मेरा सनम नहीं है।
उठती थी कभी नज़रें देखने तेरे ही शादाब को,
अब धुंधली हैं नज़र, अश्को से आँखे नम नहीं है।
खुद रुसवा हुए पर तेरी बेवफाई को मुश्तहिर न किया,
पर अब तेरी बेवफाई में, तेरे संग हम नहीं है।
पीते हैं हम तो पीने का गम नहीं है।
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