Saturday, June 28, 2014

ग़ज़ल - 29/06/2014

इश्क़ होता है तो इश्क़ ही सज़ा देता है।
ज़िन्दगी जीने का अलग मज़ा देता है।

मरासिम बना रहे हो तो कलेजा रखना,
ये ज़िन्दगी के बाद भी न वफ़ा देता है।

आशना अगर होता मन तो क्या होता,
कौन कहता है कि दुश्मन दगा देता है।

घोले हैं ज़िन्दगी में तेरा नशा कि सुना है
ये काफिरों को भी वाजिद बना देता है।

रंजो-गम की बस्ती का मैं बाशिंदा सही
गार में रहना भी कुछ तो सीखा देता है।

तक़दीर की टोपी

ख्वाइशों के परों से हो बनी,
खुशियों के धागों से हो तनी।
आसमां से हो ज़रा से छोटी,
मिल जाये वो तक़दीर की टोपी।

कुछ रंग भरे हो उजले-उजले,
फूलों के पंखिड़ियों से हो निकले।
हर्ष हो उल्लास हो और हो मुस्कान,
माँ की ममता और पिता का वरदान।
रंजिश की जिसमें गुंजाईश न होती,
मिल जाये वो तक़दीर की टोपी।

काश मिल जाये ऐसी कोई टोपी,
खरीद ही लेते अगर कीमत होती।
लड़ते मरते क्या-क्या न करते,
इसे पाने के लिए कितना तरसते।
पर हकीकत हमें आइना दिखाती
काटों से सजी ग़मों से बुनी जाती।

सुनहरे धागे भी होते पर टूटे हुए।
मोती भी मिल जाते पर फूटे हुए।
हम उसे नहीं, पर वो हमें चलाती
कुछ पल बाद वो छोड़ चली जाती।
उतार फेंको अब ये तक़दीर की टोपी
हमारा नसीब हमारी मेहनत होती।