Thursday, November 15, 2012

बुना होता मैं

तेरे आशियाने में पड़ा, कभी कभी सोचता मैं।
जो तू होती यहाँ तो शायद यहाँ होता मैं।

कहीं दूर से तू मेरे नाम को, अपने होंठो से चूमती।
मेरा नाम भी जीता, कहीं जिंदा होता मैं।

कहीं उजले सवेरे तू अपनी गीले जुल्फों को सुखाती।
साँसे भी चलती शायद, और उठा होता मैं।

काश अपने साँसों में तू, मेरी ज़िन्दगी महसूस करती।
जुस्तुजू न होती मरने की, जीता होता मैं।

कभी चाँद के आँचल को छोड़कर ज़मीन पे आती।
मेरे आँगन, तेरी चांदनी ओढ़े हुए सोता मैं।

जो ताकते तारे तुझे, एक नज़र तेरी मुझ पर होती,
इतना उधड़ता नहीं यह 'लक्ष्य' बुना होता मैं।