Friday, December 28, 2012

ग़ज़ल - 29/12/12

हर चाह वक़्त की दरारों में दबी मिली,
जीने के लम्हों में ज़िन्दगी नहीं मिली।

उस रहगुज़र पर चलने का क्या फायदा
जहाँ साथी नहीं मिले मंजिल नहीं मिली।

बेबसी में जीना मुक़द्दर बनाये बेठे हैं,
जिससे भागते है दूर, किस्मत वहीँ मिली।

इंतज़ार था उनका, यकीन था आयेंगे वो,
दरवाज़े पे खड़े थे पर दस्तक नहीं मिली।

मोहब्बत के लिबास में वो बताते है अपने,
चाहा जिसे उम्र भर, वो चाहत नहीं मिली।

Saturday, December 8, 2012

काश ये दुनिया मेरी माँ की तरह होती।

काश ये दुनिया मेरी माँ की तरह होती।

जिसे फ़िक्र न होती कि
मैं क्या काम करता हूँ।
मेरी आमदनी कितनी है।
और मैं कितनी बुराइयों से घिरा हूँ।

फ़िक्र तो बस इतनी होती कि
मैं ठीक से खाना तो खाता हूँ।
कभी भूखा तो नहीं सो जाता हूँ।
कभी कोई परेशानी तो नहीं सताती है।

जिसे फ़िक्र न होती कि
मैं उसके कन्धों से कितना ऊंचा हूँ।
कितना पढ़ा और कितनी दूर पहुंचा हूँ।
अभी क्या हूँ और आगे क्या चाहता हूँ।

फ़िक्र तो बस इतनी होती कि
मैंने अपनों बालों की सही से बाये तो है।
मैं दिखता अच्छा कपडे धुले धुलाये तो हैं।
खर्च करने के लिए कुछ पैसे हाथ में थमाए तो हैं।

जिसे फ़िक्र न होती कि
गोदी में सोने से उसके पेरों में दर्द कितना है।
आँखें नम कितनी है और दिल भरा कितना है।
हाथ कपकपाते हैं और शरीर में दम कितना है।

फ़िक्र तो बस इतनी होती कि
उसकी गोदी में सोता रहूँ, कोई खलल न हो पाये।
मेरे पसंद का खाना वो रोज बनाकर मुझे खिलाये ।
और रोज मुझे वो अपनी ममता के आँचल में सुलाये।


काश ये दुनिया मेरी माँ की तरह होती।

Saturday, December 1, 2012

ज़िन्दगी की गाड़ी

ज़िन्दगी की गाड़ी होती शुरू माँ की  गोद से,
कभी पापा के कंधे तो कभी दादी की गोद पे।
कभी ज़मीन पे पाँव न रखने का गुमान होता।
मेरे चलने का सभी को कितना अरमान होता।

स्कूल जाने के लिए होती पापा की लूना की सवारी।
गलियों में तो बस तीन पयिओं की सायकिल हमारी।
सायकिल सीखने के जतन में कितने बार गिर के उठे,
और सीख जाने पर गुरूर से गलियों में चलाते भी मिले।

कुछ वक़्त के लिए लगा ज़िन्दगी की गाड़ी  छूट गई।
जब ज़िन्दगी बचपन की मस्तियों में पूरी तरह डूब गई।
दोस्तों के गले में हाथ डाले हर पल का लुफ्त उठाया।
ठोकोरों से जाने कितने खलिशों को धूल में मिलाया।

फिर अचानक ज़िन्दगी की गाड़ी की सिटी सुनाई दी।
जब कॉलेज में तेज़ रफ़्तार से चलती बाइक दिखाई दी।
जुनूं बाँधा कुछ पाने का, कुछ कर गुज़रने की ठानी थी।
कहीं से एक हवा पहले प्यार की भी छूकर मुझे जानी थी।

फिर किसी एक मोड़ पे वो गलियाँ भी छूट जाती है।
और ज़िन्दगी की गाड़ी एक नए स्टेशन पे  आ जाती है।
अब बड़ी गाड़ियाँ, तो बड़े घर के ख्वाब पलने लगते हैं।
कुछ जुगाड़ कुछ मेहनत से अपने पैरों पे चलने लगते हैं।

एक दिन ज़िन्दगी हमें आसमां से भी मिलाती है।
परिंदों की तरह सारे जहाँ की सेर भी करवाती है।
नयी जगह, नयी उमंगें, नए साथियों से मिलवाती है।
जब गाड़ी हवा पर तेरती और समंदर के पार जाती है।

ज़िन्दगी की गाड़ी  ने ज़िन्दगी के सलीक़े भी सिखाये।
कुछ स्टेशन पीछे छोड़े जब भी आगे नए स्टेशन आये।
अब एक बार पीछे देखने की फुर्सत को तालाश्ता हूँ।
आगे की सोच में ज़िन्दगी को उलझा हुआ पाता हूँ।

कोई तो आके इस तेज़ रफ़्तार को थोडा कम कर दे।
इन पलों को थाम ले और एक रहम हम पर करे दे।
एक बार मेरी  ज़िन्दगी की गाड़ी को पीछे पलटा दे।
बस माँ की गोद में मेरी गाड़ी को फिर से लोटा दे।