ज़िन्दगी की गाड़ी होती शुरू माँ की गोद से,
कभी पापा के कंधे तो कभी दादी की गोद पे।
कभी ज़मीन पे पाँव न रखने का गुमान होता।
मेरे चलने का सभी को कितना अरमान होता।
स्कूल जाने के लिए होती पापा की लूना की सवारी।
गलियों में तो बस तीन पयिओं की सायकिल हमारी।
सायकिल सीखने के जतन में कितने बार गिर के उठे,
और सीख जाने पर गुरूर से गलियों में चलाते भी मिले।
कुछ वक़्त के लिए लगा ज़िन्दगी की गाड़ी छूट गई।
जब ज़िन्दगी बचपन की मस्तियों में पूरी तरह डूब गई।
दोस्तों के गले में हाथ डाले हर पल का लुफ्त उठाया।
ठोकोरों से जाने कितने खलिशों को धूल में मिलाया।
फिर अचानक ज़िन्दगी की गाड़ी की सिटी सुनाई दी।
जब कॉलेज में तेज़ रफ़्तार से चलती बाइक दिखाई दी।
जुनूं बाँधा कुछ पाने का, कुछ कर गुज़रने की ठानी थी।
कहीं से एक हवा पहले प्यार की भी छूकर मुझे जानी थी।
फिर किसी एक मोड़ पे वो गलियाँ भी छूट जाती है।
और ज़िन्दगी की गाड़ी एक नए स्टेशन पे आ जाती है।
अब बड़ी गाड़ियाँ, तो बड़े घर के ख्वाब पलने लगते हैं।
कुछ जुगाड़ कुछ मेहनत से अपने पैरों पे चलने लगते हैं।
एक दिन ज़िन्दगी हमें आसमां से भी मिलाती है।
परिंदों की तरह सारे जहाँ की सेर भी करवाती है।
नयी जगह, नयी उमंगें, नए साथियों से मिलवाती है।
जब गाड़ी हवा पर तेरती और समंदर के पार जाती है।
ज़िन्दगी की गाड़ी ने ज़िन्दगी के सलीक़े भी सिखाये।
कुछ स्टेशन पीछे छोड़े जब भी आगे नए स्टेशन आये।
अब एक बार पीछे देखने की फुर्सत को तालाश्ता हूँ।
आगे की सोच में ज़िन्दगी को उलझा हुआ पाता हूँ।
कोई तो आके इस तेज़ रफ़्तार को थोडा कम कर दे।
इन पलों को थाम ले और एक रहम हम पर करे दे।
एक बार मेरी ज़िन्दगी की गाड़ी को पीछे पलटा दे।
बस माँ की गोद में मेरी गाड़ी को फिर से लोटा दे।