Friday, September 23, 2011

लहरें

ये सागर की लहरें भी कितनी अजीब हैं।

झूम-झूमकर ये किनारों पर आती हैं,
और फिर किनारों से टकराती हैं,
तो कभी पत्थरों पर
अपना सिर दे मारती हैं।
थक हारकर वापिस लौट जाती हैं।

फिर कुछ समय बाद,
नयी आशा और सपनो के साथ,
वो लहरें फिर किनारे आती है।
और फिर वही कहानी दोहराती है।
चलता रहता है ये सिलसला बार बार,
बिना रुके, बिना थमे, बिना माने हार।

जब ये लहरें किनारे से टकराकर,
कुछ टूटकर, कुछ भिखरकर,
मेरे पैरों को छूती है।
तब मानो लगता है ऐसे,
जैसे वो कुछ कह रही हो।
अपनी हर कोशिश के वजूद को
रेतों पर कायम कर रही हो।

और मानो चिढ़ा रही हो, उन लोगों को,
जिन्हें अपनी कोशिश में हार नहीं मंज़ूर होती।
जो ज़िन्दगी को हार और जीत के तराजू से तौलते हैं
और मंजिल कि चाह में रास्ते का लुफ्त भूल जाते हैं।
आज ये लहरों ने मुझे तो छू लिया है,
अपनी ही आदतों में गिरफ्त करने।

मैं खुश हूँ मगर,
ये सागर के लहरें भी कितनी अजीब हैं।

Tuesday, September 20, 2011

ठहराव

अब ज़िन्दगी की गति में थोड़ा-सा ठहराव चाहिये,
जो भर गये हैं ज़ख्म उनमें न और घाव चाहिये।
चल चुके है बहुत दूर नंगे पैर, तपती सड़को पर,
दो पल के लिए ही सही कहीं तो ठंडी छाव चाहिये।

जागे हैं बहुत देर से हम, ये आँखें भी थक चुकी हैं,
कुछ देर तो अब सोने दो, इनमें न और ख्वाब चाहिये।

माना ये वक़्त के कांटे हैं, न सोते हैं, न सोने देते हैं।
अब वक़्त की जंजीरों से ज़िन्दगी मेरी आज़ाद चाहिये।

अब गम से भरी कविताओं को, कर दो थोड़ी देर किनारे,
बहुत देर से दिल में बसा है प्यार, अब उसे भाव चाहिये।

जो तौलते थे ज़िन्दगी को, हर वक़्त, अपने तेय पैमानों से,
बहुत बाकी है प्यास, अब जो छलक जाये वो जाम चाहिये।

देखा ज़िन्दगी को बदलते हुए, ज़माने से आगे चलते हुए,
अब तो मुझे थमना होगा, अब न मुझे कोई बदलाव चाहिये।

अब ज़िन्दगी की गति में थोड़ा-सा ठहराव चाहिये।

Thursday, September 15, 2011

Some Couplets

(1)
जो पल भर न थमे वक़्त तो यकीन होता है,
कुछ तो है, जो खुदा के हाथ में भी नहीं है।

(2)
जो पल भर थम जाता वक़्त तो यकीन होता,
कुछ तो है जो खुदा के हाथ में भी है।

(3)
जो माना तुझे खुदा तो, खुश खुदा हो गया,
पर तोहीन न हो जाये तेरी, ये मुझे गुमां हो गया।

(4)
वो कहते हैं कि खुदा है तो खुदा क्यों दिखता नहीं?
हम येही कहते हैं जो दिखता है वो खुदा होता नहीं।

(5)
अगर खुदा तुझे नाज़ है इस खुदाई पर तो,
में कौन हूँ जो इस खुदाई पर ऐतराज़ करे।

(6)
जो करने आए मोहब्बत तो नफ़रत क्यों मिली?
ये खुदा तू ही बता दे, हमसे गिला अब क्या हुई?

(7)
वो आइना भी था तेरा, वो शक्ल भी थी तेरी,
फिर भी न जाने हमें क्यों गुमान हो गया।

Sunday, September 4, 2011

सलीका

कोई इस बात पर गौर करता है कि ज़िन्दगी जीना का क्या सलीका है।
कोई इस बात पर गौर करता है कि ज़िन्दगी को क्यों सलीकों से जिया जाता है।

मैं जब ट्रेन से यात्रा करता हूँ तो अक्सर दरवाज़े पर खड़ा हो जाता,
और घंटे निहारता हूँ वादिओं को, पेड़ो को, पक्षियों को,
वो ऊपर निचे डोलते पहाड़ो को, दूर कहीं जाती गाड़ियों को.
वो खेतों को, खलियानों को,
वो नदियों को,
वो झरने से घिरे पहाड़ो को,
वो घने जंगलों में एक मंदिर को,
वो ढ़ोरों को चराता हुआ एक चरवाह को।

और उसी समय जब तेज़ हवा गुज़रते हुआ,
मेरे चहरे से टकराकर बालों को उड़ाती है,
मुझे कुछ कहती मुझे कुछ सुनाती है,
मैं हँसता और ख़ुशी दिल में दौड़ जाती है।

जानता नहीं क्यों है ये ख़ुशी,
और जानने कि कोशिश भी नहीं करता हूँ।
बस लगता है कि जैसे ये तेज़ हवा के संग मेरे गम भी गुज़र जाते हैं।
बस ख़ुशी ठहर जाती है, कहीं जाने की, किसी से मिलने की।

कुछ लोग कहते हैं कि दरवाज़े से दूर खड़े हो जाओ,
पर उनको क्या पता कि ज़िन्दगी जीने का सलीका नहीं होता।

(There are no rules of life and therefore life does not rules, its you who rules!)

Thursday, September 1, 2011

कुछ रुबाइयाँ

जब से वो करने लगे हैं मोहब्बत बेगानों की तरह,
गुज़रने लगे हैं ये रात और दिन अंजानो की तरह।
वो थे तो, ये जहाँ भी अपना ये आस्मां भी अपना।
वो नहीं तो, रूह भी बसर करती है मेहमानों कि तरह।

लगा क्यों आज मेरा आशियाना टूट गया,
संभाले थे जिसे हम वो फ़साना छूट गया।
कहते थे जिसे दोस्त ज़िन्दगी भर हम वो,
रकीब बनकर दिल का खजाना लूट गया।

सितारों से आगे जहाँ और भी है,
अभी ज़िन्दगी में मुकां और भी है।
और क्यों रुकू मैं, क्यों थमू मैं,
अभी दिल में बसे अरमां और भी है।
(Inspired from Allama Iqbal - poetry)