Friday, September 23, 2011

लहरें

ये सागर की लहरें भी कितनी अजीब हैं।

झूम-झूमकर ये किनारों पर आती हैं,
और फिर किनारों से टकराती हैं,
तो कभी पत्थरों पर
अपना सिर दे मारती हैं।
थक हारकर वापिस लौट जाती हैं।

फिर कुछ समय बाद,
नयी आशा और सपनो के साथ,
वो लहरें फिर किनारे आती है।
और फिर वही कहानी दोहराती है।
चलता रहता है ये सिलसला बार बार,
बिना रुके, बिना थमे, बिना माने हार।

जब ये लहरें किनारे से टकराकर,
कुछ टूटकर, कुछ भिखरकर,
मेरे पैरों को छूती है।
तब मानो लगता है ऐसे,
जैसे वो कुछ कह रही हो।
अपनी हर कोशिश के वजूद को
रेतों पर कायम कर रही हो।

और मानो चिढ़ा रही हो, उन लोगों को,
जिन्हें अपनी कोशिश में हार नहीं मंज़ूर होती।
जो ज़िन्दगी को हार और जीत के तराजू से तौलते हैं
और मंजिल कि चाह में रास्ते का लुफ्त भूल जाते हैं।
आज ये लहरों ने मुझे तो छू लिया है,
अपनी ही आदतों में गिरफ्त करने।

मैं खुश हूँ मगर,
ये सागर के लहरें भी कितनी अजीब हैं।

No comments: