Tuesday, February 21, 2012

ग़ज़ल - 21/02/2012

मेरा दिल, मेरा ही रकीब हो गया।
अश्कों में जीना मेरा नसीब हो गया ।

यहाँ घन्हे बादलों का तो है मेला,
मगर दो बूँद ही मेरा हबीब हो गया।

देता है दिल मुझे दर्द के तोहफे,
अब तो ये दर्द ही मेरा हकीम हो गया।

जो दिखता है दरया में चाँद मुझे,
तेरा चेहरा मुझसे कितना करीब हो गया।

फूलों में भी कहाँ कुश्बू बची है,
तू गया तो भंवरा भी यतीम हो गया।

Friday, February 10, 2012

फिर वो पुराने घर लौट जाने को जी चाहता है

फिर वो पुराने घर लौट जाने को जी चाहता है ।

वो चौखट जिसे सूरज कि पहली किरण करती थी नमन,
वो हवाओं के थपेड़ो में खड़खड़ाती खिडकियों की कश्मकश,
वो खपरेलों की छत पर पड़ती बारिश कि बूंदों का संगीत,
वो सब बहुत याद आता है,
फिर वो पुराने घर लौट जाने को जी चाहता है।

जिसकी छत की मुडेर पर कबूतरों का होता था अक्सर डेरा,
जिसके सामने वाले मकान को एक पीपल के पेड़ ने था घेरा,
जिसके पास गुज़रती गली में बच्चों के कह्कशो का था मेला,
वो सब मुझे वापस बुलाता है ,
फिर वो पुराने घर लौट जाने को जी चाहता है ।

वो दीवारों पर गोदा-गादी बचपन की याद दिलाता था,
वो आँगन का खराब हैंडपंप उसपर झूलने पर उकसाता था,
वो रात में छत से आसमान का नज़ारा, अलग मज़ा आता था,
क्यों याद आकर अब मुझे रुलाता है?
फिर वो पुराने घर लौट जाने को जी चाहता है।

कोई नहीं रहता उसमें अब, वीरान पड़ा हुआ है वो,
ताक रहा है राह मेरी, फिर जीवित होने की आस में वो,
दीवारों पर रंगों की परते अब ज़रूर गिरने लगी है,
कोई नहीं उसपर अब रंग करवाता है,
फिर वो पुराने घर लौट जाने को जी चाहता है।

कौन कहता है कि निर्जीव से रिश्ता नहीं जुड़ पाता है,
यहाँ तो पत्थर कि मूरत से भी अटूट बंधन बन जाता है,
जीवन के उधेड़-बुंद में हम ज़रूर उनको भूला देते हैं,
पर एक वो हैं, जो हमें कभी न भुला पाता है ,
फिर वो पुराने घर लौट जाने को जी चाहता है।