Sunday, May 25, 2014

बदलता शहर

बीस साल में ये शहर कुछ तो बदला है।
तंग गालियां और भी तंग हो गयी हैं,
पर वहां कूदते फांदते बच्चे आज भी दिख जाते हैं।
ये ज़रूर है कि उनके चेहरे बदल गये हैं
और हाँ! उनके  खेल भी अब बदल गये हैं।

ऊँचे घर थोड़ा और ऊँचे हो गए हैं।
कुछ खप्रेल के मकानों में पक्की छत डल गयी है।
अब आसमान थोड़ा छोटा हो गया है।
और रात में सितारें अब कम दिखाई देते हैं।

बड़ी दुकानें और भी बड़ी हो गयी हैं।
नए चमकीले रंग और रौशनी से भरी हुई हैं।
खरीदारों की कतारें लम्बी होती जा रही हैं।
नियत बदल गयी है ज़रूरतें बदल गयी हैं।

जो नहीं बदला वो सब्ज़ी मंडी में बैठी
वो बुढ़िया है जो आज भी भाजी ही बेच रही है।
मानो उसकी उम्र ठहर गयी हो,
वक़्त रुक गया हो और कुछ भी न बदला हो।

जो नहीं बदला वो बर्फ-गोला बेचना वाला
भैया है जो आज भी वही ठेले पे, ज़िन्दगी के
बवंडर से निकलना का प्रयास करता रहता है।
नहीं बदली तो उसके चेहरे की शिकन भी नहीं बदली।

दही बेचने वाला वो भैया भी नहीं बदला है।
आज भी वही साईकल पे, गलियों से गुज़रता है।
माँ आज भी उसी से दही खरीदती है और
कहती है कि उसके दही का स्वाद कभी बदला नहीं।

बीस साल में ये शहर कुछ तो बदला है।