Tuesday, July 17, 2012

दीदार-ऐ-हंसी

उनके बिना, मेरी ज़िन्दगी में कुछ भी तो नहीं,
दिन तो चढ़ता है, पर मेरी रात अभी भी है वहीँ।

कितना संभाला, दिल को कितना बहलाया भी,
पर दिल ये मेरा मेरी बात पे गौर करता ही नहीं।

ये फूलों पे उनके होठों के जो रंग है भिकरे,
देखो, खुदा भी इन्हें चूमने आज आया है ज़मीं ।

ये आसमां के सारे सितारे ताकते है जिसको,
है वो चाँद से भी खूबसूरत, होता नहीं उन्हें यकीं।

वो तो न आये, पर उनकी सदायें आती रहती,
आहें भरता हूँ जब भी लगता है वो है यहीं कहीं।

कभी तो हठ जायेंगे ये हया के परदे रुख से,
बस, धड़कने न थम जाये जब हो दीदार-ऐ-हंसी।

Monday, July 9, 2012

मेला

वो तालाब के सामने, मस्जिद के पास,
हाँ, मेरे यहाँ भी मेला लगा करता था।

वो खिलोनों की दुकानें, वो रसीले पकवान,
वो बड़े-बड़े झूले में बेठ हम छूते आसमान,
शाम से ही जहाँ हंगामा मचा करता था।
हाँ, मेरे यहाँ भी मेला लगा करता था।

वो दोस्तों के गले में हाथ डालकर घूमना,
वो लड़ते-झगड़ते मस्तियों को चूमना,
जहाँ राजा होने का गुमान उमड़ता था।
हाँ, मेरे यहाँ भी मेला लगा करता था।

लोगों के आँखों में जहाँ सोने की दमक,
खिलते चेहरों में नए कपड़ो की चमक,
जहाँ जाने के लिए माँ से लड़ा करता था।
हाँ, मेरे यहाँ भी मेला लगा करता था।

कभी जहाँ बाबूजी के संग जाया करता था।
खिलोने खरीद गोल-गप्पे खाया करता था।
उनके कंधो से सारा जहां दिखाई पड़ता था।
हाँ, मेरे यहाँ भी मेला लगा करता था।

पर अब तालाब को सरकार ने भर दिया है।
मस्जिद के पास भी इमारतों को जड़ दिया है।
जहाँ सडकों पर अब बस मोटरें चला करती है।
हर हलचल में बस खामोशी झलका करती है।

मेलों में जाना लोगों ने अब छोड़ दिया है।
बचपन के खिलोनों को किसने तोड़ दिया है?
वो तालाब ढूँढता हूँ जो गवाह बनता था।
हाँ, मेरे यहाँ भी मेला लगा करता था। 

Sunday, July 8, 2012

सदर की गलियाँ

बच्चे जहाँ दिन भर शोर मचाते हैं,
अपने कहकहों से हर शाम सजाते है।
जहाँ खिलती है मधुर गीतों की कलियाँ,
वो गलियाँ, वो गलियाँ, वो सदर की गलियाँ।

चांदनी जहाँ आकर रात में चेन से सोती है,
चोंगो के चिलाहट से जहाँ सुबह होती है।
जहाँ पलते है दादी-नानी के किस्से कहानियाँ,
वो गलियाँ, वो गलियाँ, वो सदर की गलियाँ।

कुछ तो है पतली, कुछ मोटी कहलाती है,
कुछ नंबर से तो कुछ नाम से जानी जाती है।
किसी अंजान के लिए तो है बस भूल-भूलियाँ,
वो गलियाँ, वो गलियाँ, वो सदर की गलियाँ।

लट्टू के कील से इसने कितने घाव खाए है,
कंचो से कंचे इस पर जाने कितने टकराए है।
जलायें भी है जाने कितनी खुशियों की लडियां,
वो गलियाँ, वो गलियाँ, वो सदर की गलियाँ।

लाल स्कूल से गुज़र गणेश चौक पर मिलती है,
मकानों की कतारों से कई बातें किया करती है।
ढूंढ रही हो मकानों के फासलों में नजदीकियां ,
वो गलियाँ, वो गलियाँ, वो सदर की गलियाँ।

ये न कभी सोती है, और न कभी सोने देती है,
जब भी मिलती है तो बस येही कहती रहती है।
'लक्ष्य' तू समंदर बन जा और हम तेरी नदियाँ,
वो गलियाँ, वो गलियाँ, वो सदर की गलियाँ।

Friday, July 6, 2012

ग़ज़ल - ६/०७/१२

कोई कैसे खुदा पर एतबार करे,
माँ भी जब रोटियों का हिसाब करे।

दरिया हूँ, समंदर न समझ मुझे,
सिकुड़ता हूँ, जब कोई बेज़ार करे।

हिलते हुए शाखों पर पत्ते हसीं,
काश कोई पतझड़ में इनसे प्यार करे।

देखे जहाँ में लटकते मतलबों के पुलिंदे,
हर कोई यहाँ, मोहब्बत में व्यापार करे।

गर मोहब्बत है 'लक्ष्य', तो समझ ले,
टूटते हैं हर वादे, चाहे कोई हज़ार करे।