Saturday, June 30, 2012

चंद शेएर!

इंसान की भी नियत क्या डगमगाई है,
तारों की चमक चंद सिक्को में पाई है।

चढ़ाते थे जो फूल मकबरे पर सिर झुकाए,
आज उसी ने खुशबूओं की कीमत लगाई है।

वफ़ा के नाम पर कभी जान भी देते थे,
आज मोहब्बत के नाम पर बस बेवफाई है।

पराये भी आए तो खुदा से कम न समझा,
आज मेहमान-नवाजी में होती बस रुसवाई है।

मौखाटा ओढ़े छुपा रहे हैं खुदी से खुद को हम,
आइना देख कर भी क्यों हमें लाज न आई है?

जीने के लिए जीना है तो जी ज़िन्दगी ऐसे ही,
पर याद रख, मौत ही ज़िन्दगी की सचाई है।

Saturday, June 23, 2012

हम है भीगे, हम है भीगे।

आज जो जम कर बरसी है बारिश,
हम है भीगे, हम है भीगे।
आज मौसम ने भी जलाई है आतिश,
हम है भीगे, हम है भीगे।

सर उठा कर जो ऊपर देखा मैंने, तो माथे की लकीरें धुल गयी।
नीला आसमान भी दिखा मुझे, जो बादलों की खिड़की खुल गयी।
क्या ये है, गीले बूंदों की साजिश?
हम है भीगे, हम है भीगे।

ऊँचे ऊँचे जो पर्वत थे, अब लगने लगे हैं मुझको वो बोने।
रंग बिरंगी है फूलवारी महकी, हरियाली छाई है कोने कोने।
ये किसके दुआ की है आज़मायिश?
हम है भीगे, हम है भीगे।

कुछ और पल जीने की जगी है आस, इस बेचेन मेरे दिल में।
मोहब्बत ही मोहब्बत है भिची, अरमानों की इस महफ़िल में।
खुदा ने जैसे जताई हो अपनी फरमाइश,
हम है भीगे, हम है भीगे।

अचानक ही दिल मेरा जैसे, रगों में हो खुशियाँ फेला रहा।
जन्नत हो ये मेरा जहाँ, और रूह को हो खुदा से मिला रहा।
इतने सुकून की तो कभी न थी ख्वाइश,
हम है भीगे, हम है भीगे।

Saturday, June 2, 2012

दो शहरों के बीच

सड़को पर दोड़ते पहियों को देखा हमने,
कुछ निगाहें हम पर भी पड़ी ज़रूर।
आए तो थे कुछ वक़्त के लिए ही यहाँ,
मगर वो वक़्त मानो ठहर सा गया है ।

यहाँ मौसम का मिज़ाज कुछ कम बदलता है ।
उतार चढ़ाव के दौर से थोड़ा कम गुज़रता है ।
गर्मी के थपेड़ो की तो कमी महसूस नहीं होती,
पर कड़कड़ाती ठण्ड में रजाई का मज़ा खलता है ।

और जब में अपने घर की खिड़की से बहार झांकता हूँ,
तो मुझे दो शहर नज़र आते हैं ।
एक वो ,
जहाँ बड़ी-बड़ी इमारतें, आसमान को छू जाती हैं।
जहाँ लम्बी-लम्बी गाड़ियां, सड़को पर दोड़ती नज़र आती है ।
जहाँ दौलत की नुमाइश, कम कपड़े पहनकर की जाती है ,
और जहाँ हर ख़ुशी, पैमानों को टकराकर मनाई जाती है ।

दूसरा वो है,
जहाँ चंद सिक्को के लिए, जिंदगियां दांव में लग जाती है ।
जहाँ दो वक़्त की रोटी जुटाने में, ज़िन्दगी गुज़र जाती है।
जहाँ नुमाइश, कम कपड़े पहनने की विवशता में आती है,
और जहाँ हर ख़ुशी, रात को चैन की नींद में मिल जाती है ।

मैं, लक्ष्य, इन दो शेहेरों के बीच में खुद को तलाशता हूँ ,
अपनी बेबसी का चोला ओढ़े, अपने दिल को बहलाता हूँ ।

बस तज़ार कर, इस वक़्त के गुज़र जाने का,
मौसम के बदलने का, गर्मी के पिघल जाने का।
इंतज़ार कर, ये दो शहरों के आपस में मिल जाने का,
शायद फिर, कड़कड़ाती ठण्ड में रजाई का मज़ा लौट आएगा।