Saturday, November 22, 2014

माँ ....

आसमां भी मिला तारे भी मिले,
माँ के कदमों में सारे ही मिले।

गोद में तेरी सर रख सोना ज़रा,
सुकूं मिला खुल्द के नज़ारे भी मिले।

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दुनिया मुझे अक्सर, रुसवा करती है।
एक माँ ही है जो दुलार सदा करती है।

उसकी आँखों में मैं नूर-ऐ-चश्म सही,
उसका यकीन ही उसे खुदा करती है।

उसके आँचल में मैंने मेरा आसमां पाया,
मैं सोता हूँ तो बस वो सजदा करती है।

दो वक़्त की रोटी में कितना भटका मैं,
पेट भरा जब एक कोर माँ अदा करती है।

अकेला हूँ तो ये जहाँ काफिर लगता है,
माँ हो साथ तो ज़िन्दगी भी वफ़ा करती है।

ग़ज़ल

देखो वो हमारी किस्मत बदलने चले हैं।
ख़ुदा से ख़ुदा को अलग करने चले हैं।

ये सियासत नहीं जो रास आ जाएगी।
ये दिल की लगी है तभी जलने चले हैं।

तुम काफ़िर हो तुम्हे किस बात का डर,
हम मोहब्बत में समंदर निगलने चले हैं।

नकाब उतारकर कभी आइना भी देख,
है बादाख्वार जो वाइज बनने चले हैं।

तुम क्या सिखाओगे जीने का हुनर हमें,
हमें मरने का शौक है सो मरने चले हैं।

Monday, July 14, 2014

शतरंज की बाजी

आज फिर लगी है शतरंज की बाज़ी,
एक तरफ मैं, तो  दूसरी ओर ज़िन्दगी।

काले मोहरे मेरे और उसके सफ़ेद हैं।
टक्कर का खेल काफी देर से चल रहा है।
ऊंट उसने मारे तो मैंने उसका हाथी
और दोनों के घोड़े तो मारे जा चुके हैं।

मैं अगली चाल सोच ही रहा था कि
ज़िन्दगी ने एक सवाल पूछ लिया।
ये तनहाई किस बला का नाम है?
मैं मुस्कराया और कुछ न कहा।

पर ज़िन्दगी चुप न बैठी और कहा
जानते हो, एक दिन चाँद को
धरती से मोहब्बत हो गई
और तब से वो धरती के
चक्कर लगाता रहता है।

न इल्म है उसे इस इश्क़ का
न खबर है क्या अंजाम होगा
बस तसल्ली है उसके दिल को
वो दूर तो है पर तन्हा नहीं है।

मैं फिर मुस्काया और कुछ न कहा।
पर जाने अंजाने ही समझ आ गया।
मैं फिर ज़िन्दगी की बातों में आ गया
मैं फिर शतरंज की बाजी हार गया। 

Sunday, July 13, 2014

माँ ने आज फिर लोरी गाकर सुलाया है

रोटी का नहीं, चाँद का टुकड़ा खिलाया है। 
माँ ने आज फिर लोरी गाकर सुलाया है। 

कोरी है थाली, न तो रोटी है, न साग है। 
लगता है चूल्हे में आज फिर न आग है।  
हाथों से पेट थपथपा भूख को मिटाया है। 
माँ ने आज फिर लोरी गाकर सुलाया है। 

सूखी धरा, कुएं का पानी लाल हो गया। 
कबसे न बरसे मेघ तो आकाल हो गया।  
पानी नहीं तो ठंडी चांदनी ही पिलाया है। 
माँ ने आज फिर लोरी गाकर सुलाया है। 

लिया क़र्ज़ झूले का, पर झूला न आया। 
दहकती ज़मीन पर सोना किसे है भाया। 
नींद नहीं आये तो आँचल में झुलाया है। 
माँ ने आज फिर लोरी गाकर सुलाया है। 

बीके हैं बर्तन, सारा सामान बिक गया। 
बची है छत, बाकी आसमान बिक गया। 
मेरे सपनों में ही अपना जहाँ बसाया है। 
माँ ने आज फिर लोरी गाकर सुलाया है। 

इस बेबसी में क्या-क्या न कर जाता मैं। 
जो माँ न होती तो पल में मर जाता मैं। 
खुदा ने उसे ज़मीन का खुदा बनाया है। 
माँ ने आज फिर लोरी गाकर सुलाया है। 

Saturday, June 28, 2014

ग़ज़ल - 29/06/2014

इश्क़ होता है तो इश्क़ ही सज़ा देता है।
ज़िन्दगी जीने का अलग मज़ा देता है।

मरासिम बना रहे हो तो कलेजा रखना,
ये ज़िन्दगी के बाद भी न वफ़ा देता है।

आशना अगर होता मन तो क्या होता,
कौन कहता है कि दुश्मन दगा देता है।

घोले हैं ज़िन्दगी में तेरा नशा कि सुना है
ये काफिरों को भी वाजिद बना देता है।

रंजो-गम की बस्ती का मैं बाशिंदा सही
गार में रहना भी कुछ तो सीखा देता है।

तक़दीर की टोपी

ख्वाइशों के परों से हो बनी,
खुशियों के धागों से हो तनी।
आसमां से हो ज़रा से छोटी,
मिल जाये वो तक़दीर की टोपी।

कुछ रंग भरे हो उजले-उजले,
फूलों के पंखिड़ियों से हो निकले।
हर्ष हो उल्लास हो और हो मुस्कान,
माँ की ममता और पिता का वरदान।
रंजिश की जिसमें गुंजाईश न होती,
मिल जाये वो तक़दीर की टोपी।

काश मिल जाये ऐसी कोई टोपी,
खरीद ही लेते अगर कीमत होती।
लड़ते मरते क्या-क्या न करते,
इसे पाने के लिए कितना तरसते।
पर हकीकत हमें आइना दिखाती
काटों से सजी ग़मों से बुनी जाती।

सुनहरे धागे भी होते पर टूटे हुए।
मोती भी मिल जाते पर फूटे हुए।
हम उसे नहीं, पर वो हमें चलाती
कुछ पल बाद वो छोड़ चली जाती।
उतार फेंको अब ये तक़दीर की टोपी
हमारा नसीब हमारी मेहनत होती।

Sunday, May 25, 2014

बदलता शहर

बीस साल में ये शहर कुछ तो बदला है।
तंग गालियां और भी तंग हो गयी हैं,
पर वहां कूदते फांदते बच्चे आज भी दिख जाते हैं।
ये ज़रूर है कि उनके चेहरे बदल गये हैं
और हाँ! उनके  खेल भी अब बदल गये हैं।

ऊँचे घर थोड़ा और ऊँचे हो गए हैं।
कुछ खप्रेल के मकानों में पक्की छत डल गयी है।
अब आसमान थोड़ा छोटा हो गया है।
और रात में सितारें अब कम दिखाई देते हैं।

बड़ी दुकानें और भी बड़ी हो गयी हैं।
नए चमकीले रंग और रौशनी से भरी हुई हैं।
खरीदारों की कतारें लम्बी होती जा रही हैं।
नियत बदल गयी है ज़रूरतें बदल गयी हैं।

जो नहीं बदला वो सब्ज़ी मंडी में बैठी
वो बुढ़िया है जो आज भी भाजी ही बेच रही है।
मानो उसकी उम्र ठहर गयी हो,
वक़्त रुक गया हो और कुछ भी न बदला हो।

जो नहीं बदला वो बर्फ-गोला बेचना वाला
भैया है जो आज भी वही ठेले पे, ज़िन्दगी के
बवंडर से निकलना का प्रयास करता रहता है।
नहीं बदली तो उसके चेहरे की शिकन भी नहीं बदली।

दही बेचने वाला वो भैया भी नहीं बदला है।
आज भी वही साईकल पे, गलियों से गुज़रता है।
माँ आज भी उसी से दही खरीदती है और
कहती है कि उसके दही का स्वाद कभी बदला नहीं।

बीस साल में ये शहर कुछ तो बदला है। 

Saturday, March 29, 2014

यादों की झोली

यादों के गुच्छे, झोली में भरे,
आया हूँ मैं समंदर में बहाने।

एक नज़र है इसमें,
जिससे पहली बार मैंने तुम्हे देखा था।
कभी बालों को ठीक करती,
तो कभी दुपट्टे को।
हल्की-सी शिकन माथे पे
एक झलक जब तुमने मुझे देखा था।
वो झलक भी इस झोली में रख छोड़ा है।

एक रुमाल भी है इसमें,
जिसमें तुम्हारे नाम के दो अक्षर लिखे हैं।
एक दिन तुम इसे 
अपनी मेज़ पे भूल गयी थी।  
एक दीवाने ने उसे
अपना समझ झट से उठा लिया था।
वो दीवाने को भी झोली में रख छोड़ा है।

एक तस्वीर भी है इसमें,
जो तुमने मेरे साथ
बड़ी झिझक के साथ खिंचाई थी।
बहुत बुलाने के बाद
तुम मेरी महफ़िल में आयी थी।
तुम जानती थी कि मैं तुम्हे बहुत चाहता हूँ।
आज वो चाहत भी झोली में रख छोड़ा है।

और भी कई चीज़े है इसमें,
कुछ बातें है इसमें,
कुछ मुलाकातें है इसमें,
एक मौसम भी है इसमें,
और कई पल भी है इसमें,
और ये सब तुम्हे मुझसे कभी जुदा नहीं कर सकते।
इसलिए ये सब भी झोली में रख छोड़ा है।

यादों के गुच्छे, झोली में भरे,
आया हूँ मैं समंदर में बहाने।

Monday, March 10, 2014

तू ...

ज़मीं है तू आसमां है तू,
इस छोटे से दिल का सारा जहाँ है तू।

दोस्त भी तू, रकीब भी तू,
ज़िन्दगी का सलीब भी तू।  
ख़ुशी भी तू और गम भी तू,
हर दर्द का महरम भी तू। 

रात में तू, बात में तू,
मेरे हर जज़्बात में तू। 
कलियों के शर्माने में तू, 
ख़ुशी से झूल जाने में तू। 

वक़्त की हंसीं तस्वीर है तू,
हुन से लिखी तक़दीर है तू।  
मंज़िल है तू रहगुज़र है तू,
जो थमे नहीं वो सफ़र है तू। 

हर बेखुदी का सबब है तू,
जो छूटे नहीं वो तलब है तू। 
ज़िंदा होने का एहसास है तू,
मेरे लिए बहुत ख़ास है तू।

Sunday, January 19, 2014

ग़ज़ल

खुद को न इतना बेकरार कीजिये
इश्क है तो फिर इज़हार कीजिये।

कुछ गम तो कुछ खुशियाँ है इसमें
खुदा पे न सही खुद पे ऐतबार कीजिये।

वो चाँद की चांदनी तुमसे दूर नहीं है
छटेंगे बादल थोड़ा इंतज़ार कीजिये।

इश्क़ में बेखुदी लाज़मी है मगर,
एक बार तो ज़िन्दगी में प्यार कीजिये।

और खुदा क्या मांगू ज़िन्दगी में अपने,
तू बस एक है चाहे दुआ हज़ार कीजिए।

Sunday, January 5, 2014

ग़ज़ल

दर्द से दिल को जब मोहब्बत होने लगे
मयकदों में जाने की तब ज़रुरत होने लगे।

लाख चाहे पर नज़र उससे हठती ही नहीं,
वो छलकती है जब तब क़यामत होने लगे।

दायर-इ-चश्म में वो कभी आते ही नहीं
शब-इ-गम में जाने कब मस्सरत होने लगे।

इब्न-इ-खुद न सही, मैं काफिर ही सही
बुत में बसे खुदा की जब वकालत होने लगे।

हर दर पर उसके, मिले जब रुसवाई तुझे
मयकदों के वजिदों में तब शराफत होने लगे।

ग़ज़ल

हमारी मोहब्बत में वो हमसे बेवफा हो बेठे
हमने दी खुदाई और वो खुद खुदा हो बेठे।

भूल गये वो हज़ारों खतों पे खून के छींटे
जो ख़त पे बस आंसू मिले तो खफा हो बेठे।

वो आते थे दयार में मेरे आफताब की तरह
शब के साय में वो चाँद की अदा हो बेठे।

उठाये हुए है मोहब्बत का क़र्ज़ सीने पे
क्या मालूम वो कब मिले और नफा हो बेठे।

आये थे दर पे तेरे कि फिर कोई मरासिम हो
मैं काफ़िर न था पर बे-आबरु दफा हो बेठे।