Sunday, January 5, 2014

ग़ज़ल

हमारी मोहब्बत में वो हमसे बेवफा हो बेठे
हमने दी खुदाई और वो खुद खुदा हो बेठे।

भूल गये वो हज़ारों खतों पे खून के छींटे
जो ख़त पे बस आंसू मिले तो खफा हो बेठे।

वो आते थे दयार में मेरे आफताब की तरह
शब के साय में वो चाँद की अदा हो बेठे।

उठाये हुए है मोहब्बत का क़र्ज़ सीने पे
क्या मालूम वो कब मिले और नफा हो बेठे।

आये थे दर पे तेरे कि फिर कोई मरासिम हो
मैं काफ़िर न था पर बे-आबरु दफा हो बेठे।

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