Sunday, June 26, 2011

खुद को भूले

गम के अंधेरों में कभी हम खुद से भी बातें कर लिया करते थे,
जब से चांदनी ने घेरा है हमें, मानो खुद को ही भूल गये हैं।

अब बातों का वो जलसा नहीं सजता है
और मदिरा का पैमाना नहीं छलकता है,
वो तेरे नैनों की ग़ज़ल में ऐसे डूबे हैं
मानो खुद शायरी ही भूल गये हैं।

ये गुजरने वाली हवा का वो झोका है,
जो गुजरने के बाद भी अपनी महक छोड़ जाएगी।
और ये महक ही है जो डराती हमें,
मानो खुद सांस लेना ही भूल गये हैं।

अब धुप से ढकी दीवारों पर सीलन नहीं पड़ा करती है,
और छत पर कबूतरों का जमावड़ा भी चला आता है,
और जताते हैं की दाना डाला करते थे हम कभी,
पर अब मानो खुद खाना ही भूल गये हैं।

एक दिन ये उड़ जायेंगे अपने पंख पखारे,
और हम देखते रह जायेंगे टूटे सपने सारे।
घनघोर बादलों के बीच छिप जाएगी धुप सारी,
फिर होगा अंधेरों का दामन और होगी ग़मों की चादर,
फिर से चलेगा दौर बातों का और तब आयेंगे याद खुद को हम।

Friday, June 3, 2011

शायरी - 1204

तेरी जुस्तुजू तो नहीं, तेरा न कोई ख्वाब है,
बस गम की दुआओं का मेरे सर पर हाथ है।
जो अश्क नहीं बहे, उम्र भर मेरे मालिक,
अब गिरे जो दम-ब-दम तो तेरी सौगात है।

Thursday, June 2, 2011

मेरी आज़ादी

वो गुज़रा हुआ वक्त को देखा तो लगा कुछ बदल गया है,
जैसे यादों के पानी में बिखरे बर्फ की तरह पिघल गया है।
अब जब बुलबुले उठाते हैं, तो आँखों से दो आंसू छलक जाते हैं,
संभाले न संभालते हैं, जैसे पैमाने के मायेने बदल जाते हैं।

गम तो मुझे अभी भी नहीं है, पर वो क्या खुशियाँ का दौर था,
जब हंसी के फुहार से मिलते थे यार दोस्त वो ज़माना कुछ और था।
अब मगर लगता है जैसे सांसो ने जीना छोड़ दिया है,
अब खिलखलाते रास्तों ने इधर से गुज़रना छोड़ दिया है।

कभी खुली वादियों में पंख पखारे उड़ा करते थे,
कभी धरा को बिस्तर बनायें आसमान को ओड़ा करते थे।
अब वो चेतना खो गयी है, अब वो वादियाँ सो गयी है,
अब पक्की दीवारों का झुण्ड बचा है, और काले बादलों का घेरा है।

कभी डर की सीमाएं छोट्टी हुआ करती थी, कुछ ऊट-पटांग करने को दिल चाहता था,
कभी बाबूजी के कंधो पर बेठे हुए, सबसे ऊँचे होने का गुमान उमड़ आता था
अब सटीकता से दिल घबराता है, अपनी ही गलतियों के आईने में घिर जाता है,
अब खुद के भी कंधे मानो टूट गये हैं, जाने क्यों अब बाबूजी भी मुझसे रूठ गये हैं।

कभी अरमानों की अटकलों से निकलता था मेरा उज्जवल सवेरा,
कभी शाम को माँ के आँचल में गुजरता था मेरा सपनो का अँधेरा।
अब सपने भी देते नहीं दस्तक और सवेरा भी आने को नाराजी है,
अब जो आंचल उड़ा ले गयी है हवा कहता इसे मैं मेरी आजादी है।