Sunday, September 1, 2013

मैं अपना आशियाना पीछे छोड़ आया हूँ।

अपने अरमानों की टोली के पीछे,
खुशियों की खाली झोली के नीचे,
जाने मैं कितने दिल तोड़ आया हूँ।
मैं अपना आशियाना पीछे छोड़ आया हूँ।

कोई कहता है कि मैं पत्थर निष्ठुर हूँ।
छोटी-छोटी खुशियों से अभी दूर हूँ।
घने काले बादलों को छत बना बेठा हूँ।
सीली हुई दीवारों पे रंग लगवा ऐठा हूँ।

दिल है पर मोहब्बत से सरोकार नहीं है।
अरमानों में मेरे अब कहीं प्यार नहीं है।
सितारों की चाह के सरताज बन बेठे हैं।
अपनी ही ख्वाइशों के मोहताज बन बेठे हैं।

कुछ रूह है जो मुझे अभी भी याद करती हैं।
मेरे घर वापस आने की फ़रियाद करती है।
पर घर जाते रास्ते को खुदी मोड़ आया हूँ।
मैं अपना आशियाना पीछे छोड़ आया हूँ।