Thursday, August 25, 2011

मन का चोर

एक चोर था मेरे मन में,
एक चोर था तेरे मन में ।

कुछ थी न तुझको खबर,
कुछ मैं भी था बेखबर ।

पर एहसास था कहीं छुपा हुआ है ।
और दिखावों के बोझों में दबा हुआ है ।

वो आदत के जालों में घिरा हुआ है ।
वो मजबूरी के धागों में फिर हुआ है ।

कोई देता था दस्तक तो कई बार ,
पर सुनकर अनसुना करा हर बार ।

पर बहुत देर से एक आंधी आई है
जो खटखटा रही है दरवाज़ा कई बार।

लगता है अब न रुक पायेगा ये दरवाज़ा।
लगता है जल्द टूट जायेगा ये दरवाज़ा ।

कुछ तो होगा जो झिंझोड़ेगा मुझे,
कुछ तो होगी हलचल भी तुझे ।

फिर लगेगी सीने में जो आग ,
फिर जा निकालेंगे वो चोर भाग ।

फिर तू भी चैन से सो सकता है ।
फिर में भी चैन से सो सकता हूँ ।

Thursday, August 11, 2011

वो आदत थी तुम्हारी ..

वो आदत थी तुम्हारी सनम जो तुम हमें रुसवा किया करे,
ये आदत है हमारी सनम जो हम तुमसे रुसवा हुआ करे।

वो नूर था तुम्हारा जिसे देख हम सदा जिया करे,
ये अश्क है हमारे जिनको तुमने सदा अनदेखा करे।

वो ग़ज़ल थी लब्ज़ो में तुम्हारी जो हम सदा सुना करे,
ये गम हैं हमारे जो तुम्हारे कानों तक न पहुंचा करे ।

वो लहरें थी तुम्हारे केशों की लटे जिसमें हम डूबा करे,
ये सेलाब है हमारे प्यार का जो छुहे बिना तुमसे गुजरा करे।

वो गुज़रे पल थे तुम्हारे जिनकी यादें हमारी दुनिया बना करे,
ये ज़िन्दगी है हमारी जो तेरे सागर में बस बुलबुले बना करे।

वो शिकवे थे तुम्हारे जो हमारी ज़िन्दगी के दस्तूर हुआ करे,
ये दर्द है हमारे जो तुम्हारी ज़िन्दगी से बहुत दूर हुआ करे।

वो रूह थी तुम्हारी जिसे छुने की आस में हम दर-बदर भटका करे,
ये दिल्लगी है हमारी जिस से बचकर तुम मुस्कराएं चला करे।

वो वादे थे तुम्हारे जिसे हमने खुदा का हुकुम समझा किया करे,
ये खुदा है हमारा जिसे तुमने बुद समझ कर ठुकरा दिया करे।

वो टूटी पायल थी तुम्हारी जिसे हमने हमेशा महफूज़ रखा करे,
ये दौलत है हमारी जिसको लुटते हमने सरे-आम देखा करे।

वो लबों की हंसी तुम्हारी जो साया बन संग मेरे घुमा करे,
ये ख़ुशी है हमारी जो तेरे साये में अपना साया ढूँढा करे।

वो मर्ज़ी थी तुम्हारी जो तुमने हमसे दूर जाना तय किया करे,
ये मर्ज़ी है हमारी की हमने तुम्हारा इंतज़ार करना तय किया करे।

Wednesday, August 3, 2011

मेरा घर मुझे बेगाना सा लगता है

आज कल मेरा घर मुझे बेगाना सा लगता है ,
किसे कहें हम अपना हर एक अंजाना सा लगता है।

सुकड़न पड़ी दीवारें अब बस कड़ाड़ती ही हैं,
ज़मीन पर पड़ी सलवटें अब सुलझती नहीं ।
दरख्तों के दरवाजों पर जंग जो लगी है,
खिड़किओं से वो सुबह की रौशनी गुज़रती नहीं।

अब घर जाने का जो वक़्त बहाना सा लगता है
आज कल मेरा घर मुझे बेगाना सा लगता है

अब कोई आइना भी नहीं जिसे हम दोस्त कह सकते,
चुभते टूटे कांच के टुकड़े का एहसास अभी भी है ।
अब तो लहू भी नहीं छोड़ता निशाँ अपने ज़मीन पर,
जो बन चूका ज़मीन आदम तो इसकी प्यास अभी भी है।

दूर जाना भी अब इससे गुस्ताक-नामा सा लगता है,
आज कल मेरा घर मुझे बेगाना सा लगता है।

मेरा घर मुझसे कहता की में काफिर हूँ उसका
जो रखता नहीं ख्याल उसका मैं पल भर भी।
वो आए तो थे सौदा करने मेरा मकान का,
मेरी इनकार के साथ चल दिया मेरा घर भी।

बचा हुआ मेरा मकान अब विराना सा लगता है,
आज कल मेरा घर मुझे बेगाना सा लगता है।