Wednesday, August 3, 2011

मेरा घर मुझे बेगाना सा लगता है

आज कल मेरा घर मुझे बेगाना सा लगता है ,
किसे कहें हम अपना हर एक अंजाना सा लगता है।

सुकड़न पड़ी दीवारें अब बस कड़ाड़ती ही हैं,
ज़मीन पर पड़ी सलवटें अब सुलझती नहीं ।
दरख्तों के दरवाजों पर जंग जो लगी है,
खिड़किओं से वो सुबह की रौशनी गुज़रती नहीं।

अब घर जाने का जो वक़्त बहाना सा लगता है
आज कल मेरा घर मुझे बेगाना सा लगता है

अब कोई आइना भी नहीं जिसे हम दोस्त कह सकते,
चुभते टूटे कांच के टुकड़े का एहसास अभी भी है ।
अब तो लहू भी नहीं छोड़ता निशाँ अपने ज़मीन पर,
जो बन चूका ज़मीन आदम तो इसकी प्यास अभी भी है।

दूर जाना भी अब इससे गुस्ताक-नामा सा लगता है,
आज कल मेरा घर मुझे बेगाना सा लगता है।

मेरा घर मुझसे कहता की में काफिर हूँ उसका
जो रखता नहीं ख्याल उसका मैं पल भर भी।
वो आए तो थे सौदा करने मेरा मकान का,
मेरी इनकार के साथ चल दिया मेरा घर भी।

बचा हुआ मेरा मकान अब विराना सा लगता है,
आज कल मेरा घर मुझे बेगाना सा लगता है।

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