इंसान की भी नियत क्या डगमगाई है,
तारों की चमक चंद सिक्को में पाई है।
चढ़ाते थे जो फूल मकबरे पर सिर झुकाए,
आज उसी ने खुशबूओं की कीमत लगाई है।
वफ़ा के नाम पर कभी जान भी देते थे,
आज मोहब्बत के नाम पर बस बेवफाई है।
पराये भी आए तो खुदा से कम न समझा,
आज मेहमान-नवाजी में होती बस रुसवाई है।
मौखाटा ओढ़े छुपा रहे हैं खुदी से खुद को हम,
आइना देख कर भी क्यों हमें लाज न आई है?
जीने के लिए जीना है तो जी ज़िन्दगी ऐसे ही,
पर याद रख, मौत ही ज़िन्दगी की सचाई है।
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