Sunday, July 8, 2012

सदर की गलियाँ

बच्चे जहाँ दिन भर शोर मचाते हैं,
अपने कहकहों से हर शाम सजाते है।
जहाँ खिलती है मधुर गीतों की कलियाँ,
वो गलियाँ, वो गलियाँ, वो सदर की गलियाँ।

चांदनी जहाँ आकर रात में चेन से सोती है,
चोंगो के चिलाहट से जहाँ सुबह होती है।
जहाँ पलते है दादी-नानी के किस्से कहानियाँ,
वो गलियाँ, वो गलियाँ, वो सदर की गलियाँ।

कुछ तो है पतली, कुछ मोटी कहलाती है,
कुछ नंबर से तो कुछ नाम से जानी जाती है।
किसी अंजान के लिए तो है बस भूल-भूलियाँ,
वो गलियाँ, वो गलियाँ, वो सदर की गलियाँ।

लट्टू के कील से इसने कितने घाव खाए है,
कंचो से कंचे इस पर जाने कितने टकराए है।
जलायें भी है जाने कितनी खुशियों की लडियां,
वो गलियाँ, वो गलियाँ, वो सदर की गलियाँ।

लाल स्कूल से गुज़र गणेश चौक पर मिलती है,
मकानों की कतारों से कई बातें किया करती है।
ढूंढ रही हो मकानों के फासलों में नजदीकियां ,
वो गलियाँ, वो गलियाँ, वो सदर की गलियाँ।

ये न कभी सोती है, और न कभी सोने देती है,
जब भी मिलती है तो बस येही कहती रहती है।
'लक्ष्य' तू समंदर बन जा और हम तेरी नदियाँ,
वो गलियाँ, वो गलियाँ, वो सदर की गलियाँ।