Tuesday, September 20, 2011

ठहराव

अब ज़िन्दगी की गति में थोड़ा-सा ठहराव चाहिये,
जो भर गये हैं ज़ख्म उनमें न और घाव चाहिये।
चल चुके है बहुत दूर नंगे पैर, तपती सड़को पर,
दो पल के लिए ही सही कहीं तो ठंडी छाव चाहिये।

जागे हैं बहुत देर से हम, ये आँखें भी थक चुकी हैं,
कुछ देर तो अब सोने दो, इनमें न और ख्वाब चाहिये।

माना ये वक़्त के कांटे हैं, न सोते हैं, न सोने देते हैं।
अब वक़्त की जंजीरों से ज़िन्दगी मेरी आज़ाद चाहिये।

अब गम से भरी कविताओं को, कर दो थोड़ी देर किनारे,
बहुत देर से दिल में बसा है प्यार, अब उसे भाव चाहिये।

जो तौलते थे ज़िन्दगी को, हर वक़्त, अपने तेय पैमानों से,
बहुत बाकी है प्यास, अब जो छलक जाये वो जाम चाहिये।

देखा ज़िन्दगी को बदलते हुए, ज़माने से आगे चलते हुए,
अब तो मुझे थमना होगा, अब न मुझे कोई बदलाव चाहिये।

अब ज़िन्दगी की गति में थोड़ा-सा ठहराव चाहिये।

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