Sunday, September 4, 2011

सलीका

कोई इस बात पर गौर करता है कि ज़िन्दगी जीना का क्या सलीका है।
कोई इस बात पर गौर करता है कि ज़िन्दगी को क्यों सलीकों से जिया जाता है।

मैं जब ट्रेन से यात्रा करता हूँ तो अक्सर दरवाज़े पर खड़ा हो जाता,
और घंटे निहारता हूँ वादिओं को, पेड़ो को, पक्षियों को,
वो ऊपर निचे डोलते पहाड़ो को, दूर कहीं जाती गाड़ियों को.
वो खेतों को, खलियानों को,
वो नदियों को,
वो झरने से घिरे पहाड़ो को,
वो घने जंगलों में एक मंदिर को,
वो ढ़ोरों को चराता हुआ एक चरवाह को।

और उसी समय जब तेज़ हवा गुज़रते हुआ,
मेरे चहरे से टकराकर बालों को उड़ाती है,
मुझे कुछ कहती मुझे कुछ सुनाती है,
मैं हँसता और ख़ुशी दिल में दौड़ जाती है।

जानता नहीं क्यों है ये ख़ुशी,
और जानने कि कोशिश भी नहीं करता हूँ।
बस लगता है कि जैसे ये तेज़ हवा के संग मेरे गम भी गुज़र जाते हैं।
बस ख़ुशी ठहर जाती है, कहीं जाने की, किसी से मिलने की।

कुछ लोग कहते हैं कि दरवाज़े से दूर खड़े हो जाओ,
पर उनको क्या पता कि ज़िन्दगी जीने का सलीका नहीं होता।

(There are no rules of life and therefore life does not rules, its you who rules!)

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