Thursday, July 21, 2011

मेरे कमरे की तस्वीर

कई बरस पहले मेरे कमरे में एक तस्वीर टंगा करती थी।
दुनिया के दस्तूरों से बचकर अक्सर मुझसे बातें किया करती थी।

कहानी, किस्से, सवालों की सौगातें लाती थी,
मुझे मेरी तनहाइयों से आज़ाद करवाती थी।

कभी मुझे मनाती, तो कभी मुझे सताती थी,
मेरे संग झूमती, मेरे संग खुशियाँ मनाती थी।

जाने क्यों मैं एक दिन वो कमरा छोड़कर चला गया,
अपनी वो तस्वीर को अकेला छोड़कर चला गया।

अब आया हूँ वापस तो मेरे कमरे में वो तस्वीर नहीं है,
भिकरी हुई ज़िन्दगी में मानो मेरी कोई तकदीर नहीं है।

वो कौन-सी हवा का झोंका था जिसने वो तस्वीर गिरा दिया,
या बाबू जी ने चंद पैसों के खातिर रद्दी में फिकवा दिया।

अभी भी दिवार पर हलके-हलके कुछ उसके निशाँ बाकी है,
छूता हूँ ज़मीन को तो कुछ चुभते कांच के टुकड़े बाकी है।

कई बरस बाद भी तकती है निगाह मेरी उस दिवार पर,
बस! लौटा दो मुझे वो तस्वीर, अबके बरस की पोहार पर।

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