Thursday, July 21, 2011

ग़ज़ल - 2107

पीते हैं हम तो पीने का गम नहीं है,
जिसका है गम वो मेरे संग नहीं है।
गुज़रे जो शाम मयकदे में हमेशा,
रात का जगना तो मरने से कम नहीं है।

पीते हैं रोज़ ज़हर सोचकर कि उठ न पाए कभी,
पर लगता है अब शराब में भी वो दम नहीं है।

अब दरकिनार कर चुके हैं दुनियावालों ने हमें,
इस बुद्परस्त दुनिया में संगदिल कम नहीं है।

इस आफताब की गहराही में, चाँद की परछाई में,
बहुत ढूँढा हमने मगर कहीं मेरा सनम नहीं है।

उठती थी कभी नज़रें देखने तेरे ही शादाब को,
अब धुंधली हैं नज़र, अश्को से आँखे नम नहीं है।

खुद रुसवा हुए पर तेरी बेवफाई को मुश्तहिर न किया,
पर अब तेरी बेवफाई में, तेरे संग हम नहीं है।

पीते हैं हम तो पीने का गम नहीं है।

No comments: