Wednesday, November 2, 2011

क्या मिलेगा मेरे ज़ख्मों में तुम्हे!

क्यों कुरेदते हो नाखूनों से अपने,
क्या मिलेगा मेरे ज़ख्मों में तुम्हें!

यादों में तेरी जो में जल चूका हूँ,
क्या मिलेगा अब राखों में तुम्हे!

दिल का दर्द अब छिपता नहीं है,
क्या मिलेगा पर दिखाने में तुम्हें!

जो गुज़रे कई इम्तिहानों से हम,
क्या मिलेगा आज़माने में तुम्हें!

आए थे तेरे शहर में बसर करने,
दिखता खुदा न मेहमानों में तुम्हें!

रहगुज़र न सही बेघर ही सही,
जो ढूंढते हैं हम मेहखानों में तुम्हे!

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