Saturday, October 22, 2011

ग़ज़ल - 23/10/2011

जो दिल से मेरे निकले वो आवाज़ कहाँ से लाऊँ,
जो दिल तक तेरे पहुंचे वो जज़्बात कहाँ से लाऊँ।

न कुछ था मेरा तेरे पहले, न कुछ होगा मेरा तेरे बाद,
जो जी सकूं कुछ दम-भर वो एहसास कहाँ से लाऊँ।

ये गमशुदा दुनिया में जो मिल सके वो नसीब मेरा,
जो मांग सकूं तेरी खातिर, वो फ़रियाद कहाँ से लाऊँ।

बे-सबब मिली रुसवाई भी लगती कुछ कम मुझे,
जो जला सके मेरे अक्स को, वो आग कहाँ से लाऊं।

खुदा भी जानता है कि नहीं उसके पास मेरी ज़िन्दगी,
जो देदूं उसे ये जिंदगानी, वो इशफाक कहाँ से लाऊं।

ये काफिरों की बस्ती में क्यों घुट-घुट जी रहा मैं,
जो उड़ सके आसमां में, वो परवाज़ कहाँ से लाऊं।

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