Sunday, June 26, 2011

खुद को भूले

गम के अंधेरों में कभी हम खुद से भी बातें कर लिया करते थे,
जब से चांदनी ने घेरा है हमें, मानो खुद को ही भूल गये हैं।

अब बातों का वो जलसा नहीं सजता है
और मदिरा का पैमाना नहीं छलकता है,
वो तेरे नैनों की ग़ज़ल में ऐसे डूबे हैं
मानो खुद शायरी ही भूल गये हैं।

ये गुजरने वाली हवा का वो झोका है,
जो गुजरने के बाद भी अपनी महक छोड़ जाएगी।
और ये महक ही है जो डराती हमें,
मानो खुद सांस लेना ही भूल गये हैं।

अब धुप से ढकी दीवारों पर सीलन नहीं पड़ा करती है,
और छत पर कबूतरों का जमावड़ा भी चला आता है,
और जताते हैं की दाना डाला करते थे हम कभी,
पर अब मानो खुद खाना ही भूल गये हैं।

एक दिन ये उड़ जायेंगे अपने पंख पखारे,
और हम देखते रह जायेंगे टूटे सपने सारे।
घनघोर बादलों के बीच छिप जाएगी धुप सारी,
फिर होगा अंधेरों का दामन और होगी ग़मों की चादर,
फिर से चलेगा दौर बातों का और तब आयेंगे याद खुद को हम।

1 comment:

CHARANS said...

HUMMMMMM!!!!!
NICE....., KHUD KE WAJOOD KO TALAASHTE HUE ITTEFAAK !!!!!!