Friday, August 10, 2012

तुम्हारी किताब

जब भी वो तुम्हारी किताब नज़र आती है,
आँखों के कोने अचानक ही भीग जाते हैं !

वो सुबह की लाली में, जब पेड़ के नीचे,
तुम जुल्फों से खेलती कुछ लिखा करती थी !

अपने जज्बातों को नीले अक्षरों से कहकर,
कुछ नज्मों को होठों से गुनगुनाया करती थी !

वो किताब के पीले पन्नो से, आज भी
उन महकती नज्मों की सौंधी खुशबू आती है !

जैसे वो खींच रहे हो अपनी ओर मुझे,
ले जाने फिर से तुम्हारे जुल्फों के आगोश  में !

उन्ही पन्नो के बीच में एक मोर का पंख भी है,
आज भी वो अपनी कहानी बयान कर रहा है !

सिकुड़ने के लिए अभी वो राज़ी नहीं है,
जैसे उसने तुम्हे जिंदा रखने की कसम खाई है !

अब उन अक्षरों के मेलों में ढूंढता हूँ मैं तुम्हे,
पर भीगी हुई आँखों से वो धुंधले नज़र आते हैं !

और कुछ तो पानी के टपकने से धुल जाते हैं !
हाँ, पर तुम्हारी नज्मों की गुनगुनाहट सुनाई देती है !


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