Saturday, May 12, 2012

माँ की रोटी

बस कुछ देर तुझसे दूर चला हूँ मैं,
माँ! आँखों में कुछ हसीं सपने भरा हूँ मैं।

पर देखो चाँद से चांदनी दूर जाने लगी है,
आसमां में काली बदलियाँ छाने लगी है।

नहीं आती नींद मखमली तकियों में अब मुझे,
तेरी गोदी में सर रख सो जाने को जी चाहता है।

मेरे केशों को जैसे किसी की लगी है नज़र,
तेरे हाथो से मालिश करवाने को जी चाहता है।

नहीं भाता है बड़े होटलों का अब खाना मुझे,
तेरे हाथों से बनी रोटी खाने को जी चाहता है।

नहीं जागना चाहता सुनकर घंटी की आवाज़ मैं ,
तेरी पुकार से अपनी सुबह करने को जी चाहता है ।

नहीं करता अब कोई इंतज़ार घर आने का मेरे
तुझे दरवाज़े पे राह ताके देखने को जी चाहता है।

बहुत कमाकर भी खाली ही हाथ है मेरे, माँ!
तेरे आँचल से कुछ सिक्के चुराने को जी चाहता है।

बहुत दूर तक निकल आया हूँ अकेले ही मैं,
तेरा हाथ पकड़ कुछ दूर चलने को जी चाहता है।

वादा नहीं करता कि तेरे आँखों में न आंसू लाऊँ,
मेरी मजबूरी में बस तेरी दुआओं को जी चाहता है।

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