वो गुज़रा हुआ वक्त को देखा तो लगा कुछ बदल गया है,
जैसे यादों के पानी में बिखरे बर्फ की तरह पिघल गया है।
अब जब बुलबुले उठाते हैं, तो आँखों से दो आंसू छलक जाते हैं,
संभाले न संभालते हैं, जैसे पैमाने के मायेने बदल जाते हैं।
गम तो मुझे अभी भी नहीं है, पर वो क्या खुशियाँ का दौर था,
जब हंसी के फुहार से मिलते थे यार दोस्त वो ज़माना कुछ और था।
अब मगर लगता है जैसे सांसो ने जीना छोड़ दिया है,
अब खिलखलाते रास्तों ने इधर से गुज़रना छोड़ दिया है।
कभी खुली वादियों में पंख पखारे उड़ा करते थे,
कभी धरा को बिस्तर बनायें आसमान को ओड़ा करते थे।
अब वो चेतना खो गयी है, अब वो वादियाँ सो गयी है,
अब पक्की दीवारों का झुण्ड बचा है, और काले बादलों का घेरा है।
कभी डर की सीमाएं छोट्टी हुआ करती थी, कुछ ऊट-पटांग करने को दिल चाहता था,
कभी बाबूजी के कंधो पर बेठे हुए, सबसे ऊँचे होने का गुमान उमड़ आता था
अब सटीकता से दिल घबराता है, अपनी ही गलतियों के आईने में घिर जाता है,
अब खुद के भी कंधे मानो टूट गये हैं, जाने क्यों अब बाबूजी भी मुझसे रूठ गये हैं।
कभी अरमानों की अटकलों से निकलता था मेरा उज्जवल सवेरा,
कभी शाम को माँ के आँचल में गुजरता था मेरा सपनो का अँधेरा।
अब सपने भी देते नहीं दस्तक और सवेरा भी आने को नाराजी है,
अब जो आंचल उड़ा ले गयी है हवा कहता इसे मैं मेरी आजादी है।
2 comments:
SO TOUCHING , JUST PASSING THROUGH THE REALITY OF OUR LIFE; OF-COURSE "A PRODUCT OF YOU " , SO REFLECTING YOUR "INNER-MAN" .......
EXCELLENT WORK !!!!!!!!
Great Going Puneet Dil k Udgaaaron ko kis khoobsoorti k saath ubhara hai waah
tera Abhinna Mitra
Sachin
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