Tuesday, December 9, 2008

शायद तेरी है कमी

चाँद मैं चांदनी कम क्यों है,
दोड़ती ज़िन्दगी मद्धम क्यों है।
हर लम्हा सदियों सा क्यों लगे,
घर यह मेरा विराना सा क्यों लगे।

चलते चलते रुक क्यों जाता हूँ,
सीने को हाथो से थपथपाता हूँ।
बारिश न जाने अब लगती है नहीं,
दिल की यह आग भुजती क्यों नहीं।
शायद तेरी है कमी।

भंवरे फूलों से न मिलें, खुशबू जाने कहाँ गई।
कलियाँ देखो मुरझाने लगी, तितलियों की रंगत कहाँ गई।
मेरा यह आँगन सुना पड़ा है,
चमकते सूरज की रौशनी है नहीं,
शायद तेरी है कमी।

आजकल डोली न सजे, मेहँदी अच्छी न लगे,
बोली कर्कश सी लगे, गीतों मैं सुर न पड़े।
मेरी यह दुनिया तन्हाई का जहाँ है,
अकेला हूँ मैं, कोई साथी है नहीं।
शायद तेरी है कमी।

आंखों को मल दे, कुछ अपने पल दे।
अपने लेहेरों की बोछार, करता साहिल तेरा इंतज़ार।
वो लिपटे यादों को राहत दे,
फर्श पर अभी भी सिलवाते हैं पड़ी।
शायद तेरी है कमी।

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